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माया के दुष्परिणाम -
कुटिलता का अपर पर्याय माया है। मायाचारी सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और करता कुछ है। मायावी के त्रियोग में एकरूपता नहीं होती। उसके भावों में मलिनता, वचनों में मधुरता, क्रिया में विश्वासघात होता है। वह छल-कपट द्वारा कार्यसिद्धि चाहता है। आज प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में माया का सेवन कर रहा है। विद्यार्थी छल-प्रपंच कर परीक्षा में पास होने का प्रयास करता है, व्यापारी माप-तौल में कपट करते हैं। वस्तु में मिलावट करते हैं, खराब वस्तु को अच्छी बताकर बेचते हैं। यह अनेक प्रकार के बहाने बनाना दायित्व से बचने का प्रयास है। ऐसे व्यक्ति सामने प्रशंसा करते हैं, पीछे निन्दा-आलोचना करते हैं और 'मुख में राम-बगल में छुरी' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। कई व्यक्ति धर्मस्थान में धार्मिक होने का ढोंग करते हैं लेकिन बाकी समय छल-कपट करने में लगे रहते हैं। इस तरह, व्यक्ति के अन्तरहृदय में स्थित मायासंज्ञा का प्रसार सर्वत्र दिखाई देता है।
सूत्रकृतांग में माया से होने वाले दुष्परिणामों का दिग्दर्शन कराया गया है। उसमें कहा गया है -"जो माया-कषाय से युक्त है, वह भले ही नग्न (निर्वस्त्र) रहे, घोर तप से कृश होकर विचरण करे, एक-एक मास का लगातार उपवास करे, तो भी अनन्तकाल तक वह गर्भवास में आता है, अर्थात् उसका जन्म-मरण समाप्त नहीं होता। 30
मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा है इस माया से वशीभूत हुआ जीव नानाविध कपट-वचन बोलता है, प्राणान्तक संभावना होने पर भी छल करता है और छल द्वारा कार्यसिद्धि न हो, तो स्वयं बहुत संतप्त होता है। माया महादोष है, इससे निवृत्ति का उपाय ढूंढना चाहिए।"
-सूत्रकृतांगसूत्र अ.2, उ.1, गा.9
30 .... जे इह मायाए मिज्जइ, आगंता गब्भाय णंत सो ! 31 मोक्षमार्ग प्रकाशक, पं. टोडरमल, पृ. 23 ..
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