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1. परिग्रह – शरीर, धन, धान्य आदि बाह्य-पदार्थों को ममत्वभाव से ग्रहण करना। 2. संचय -किसी भी वस्तु को अधिक मात्रा में ग्रहण करना। 3. चय – वस्तुओं को जुटाना, एकत्र करना। 4. उपचय- प्राप्त पदार्थों की वृद्धि करना, बढ़ाते जाना। 5. निधान - धन को भूमि में गाड़कर रखना, तिजोरी में रखना, या बैंक में जमा
करवाकर रखना, दबाकर रख लेना। 6. सम्भार - धान्य आदि वस्तुओं को अधिक मात्रा में भर कर रखना। वस्त्र आदि
को पेटियों में भर कर रखना। 7. संकर - संकर का सामान्य अर्थ है -मिश्रण करना। यहाँ इसका विशेष अभिप्राय
है -मूल्यवान् पदार्थों में अल्पमूल्य वस्तु मिलाकर अधिक धन अर्जित करना। 8. आदर – परपदार्थों में आदरबुद्धि रखना। शरीर, धन आदि को अत्यन्त प्रीतिभाव
से संभालना-संवारना आदि । 9. पिण्ड – किसी पदार्थ को या विभिन्न पदार्थों को एकत्रित करना। 10. द्रव्यसार - द्रव्य अर्थात् धन को ही सारभूत समझना। धन को प्राणों से भी
अधिक मानकर प्राणों को संकट में डालकर भी धन के लिए यत्नशील रहना। 11. महेच्छा – असीम इच्छा या असीम इच्छा का कारण। 12. प्रतिबंध – किसी पदार्थ के साथ बंध जाना या जकड़ जाना। जैसे भ्रमर सुगन्ध
के लालच में कमल को भेदन करने की शक्ति होने पर भी भेद नहीं सकता, कोश में बंद हो जाता है और कभी-कभी मृत्यु का ग्रास बन जाता है, इसी
प्रकार स्त्री, धन आदि के मोह में जकड़ जाना, उसे चाहकर भी छोड़ न पाना। 13. लोभात्मा – लोभ का स्वभाव, लोभरूप मनोवृत्ति। 14. महद्दिका – महती आकांक्षा अथवा याचनावृत्ति।
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