________________
268
व्रत को कृत और कारित दोनों ही तरह से अपनाता है। किन्तु इसके अनुमोदन के लिए स्वतंत्र होता है।
परिग्रह-परिमाण व्रत के पांच अतिचार -
जिस प्रकार जैनधर्म में अन्य व्रतों के परिप्रेक्ष्य में कुछ अतिचारों की गणना की गई है, वहीं परिग्रह-परिमाण व्रत के भी पांच अतिचार बताए गए हैं -
उपासकदशांकसूत्र तथा तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि –(1) क्षेत्र-वास्तु (2)सोना-चाँदी (3) धनधान्य (4) दास-दासी तथा (5) कुप्य का प्रमाण बढ़ा लेना परिग्रहाणुव्रत के अतिचार हैं। जो इस प्रकार हैं -
1. क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम - क्षेत्र का अभिप्राय है, खुली भूमि (खेत, बगीचा) और
वास्तु का अभिप्राय व भूमि जिस पर मकान आदि बना हो। इसे अंग्रेजी में Open area और Covered area कहा जाता है। दोनों प्रकार की भूमियों की जितनी
सीमा व्रत ग्रहण करते समय निश्चित की है, उसे बढ़ा लेना। 2. हिरण्य-सुवर्णप्रमाणातिक्रम – चाँदी-सोना आदि मूल्यवान धातुओं की मर्यादा का
उल्लंघन करना।
3. द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रम - दास-दासी तथा पशु सम्बन्धी मर्यादा का
अतिक्रमण करना।
4. धनधान्यप्रमाणातिक्रम – मणि, मुक्ता एवं धन (पशुधन) धान्य (अनाज) का प्रमाण
बढ़ाना। धन का अभिप्राय आज के युग में नगद रूपया, बैंक बेलेन्स, शेयर आदि भी है।
86 तयाणंतरं च णं इच्छा-परिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, .
न समायरियव्वा तंजहा - खेत्तवत्थ-पमाणांइक्कमे, हिरण, सवण्ण, पमाणाइक्कमे, दुपय-चउप्पय-पमाणाइक्कमे, घण-धन्न-पमाणाइक्कमे, कुविय-पमाणाइक्कमे - उपासकदशांगसूत्र-1/45 ' क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदास कुप्यप्रमाणाति क्रमाः । - तत्त्वार्थसूत्र, 7/24
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org