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असत्यभाषण आदि करना माया-संज्ञा है। जीव की माया-कपट रूप मनःस्थिति को माया-संज्ञा कहते हैं। अभिधानराजेन्द्रकोश के अनुसार मोहनीयकर्म के माया नामक उपकर्मप्रकृति के उदय से असत्यवचनादिरूप जो क्रियाएं होती हैं, उन्हें माया नामक संज्ञा से अभिहित किया जाता है।
माया का स्वरूप -
मुख्यतः हृदय की वक्रता का नाम माया है। जैसे बंजरभूमि में बोया बीज निष्फल हो जाता है, मलिन चादर पर चढ़ाया केसरिया रंग व्यर्थ हो जाता है और नमक लगे बर्तन में दूध विकृत हो जाता है; ठीक वैसे ही माया-बुद्धि से किया गया धर्म-कार्य भी सफल नहीं हो पाता है। अणगार-धर्मामृत में मायावी का निम्न स्वरूप बताया गया है –'जो मन में होता है, वह कहता नहीं है, जो कहता है, वह करता नहीं है, वह मायावी होता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है -मायावी और प्रमादी बार-बार जन्म लेता है, उसका संसार–परिभ्रमण कभी समाप्त नहीं होता। कितनी भी साधना हो, पर यदि माया-रूपी मनोभाव कृश नहीं हुए, तो सम्पूर्ण साधना निरर्थक है। वस्तुतः, मायावी शहद लगी छुरी के समान होता है, जो मृदु व्यवहार से विश्वास जगाकर विश्वासघात करता है। वह स्वार्थसिद्धि में चतुर, छल-कपट का आश्रय लेकर विश्वासघात करता है। क्रोध और मान तो खुलकर प्रहार करते हैं, परंतु माया छिपकर घात करती है। वह व्यक्ति की आध्यात्मिक- प्रगति में बाधा डालती है और उन्नति के मार्ग को अवरुद्ध करती है। माया गति को ही नहीं माया सौभाग्य को भी नष्ट दुर्भाग्य को जन्म देती है। दूसरों के साथ माया करके हम थोड़ी देर के लिए
' प्रवचनसारोद्धार, भाग-2, द्वार-146, साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ.80 * दण्डकप्रकरण गाथा-12 'मायोदयेनाशुभसंकेतशादनृतसंभाषणादिक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति माया संज्ञा – अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग 6/255 • यो वाचा स्वमपि स्वान्तं .... - धर्मामृत, अ 6, गा. 19 'माई पमाई पुण एइ गभं - आचारांगसूत्र 1/3/1 8 माया गइपडिग्घाओ। - उत्तराध्ययनसूत्र "दुर्भाग्यजननी माया, माया दुर्गतिकारणम्।। - विवेकविलास
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