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थोड़ा-सा लाभ भले ही प्राप्त कर लें, परंतु सत्य बात मालूम होते ही भयंकर हानि उठाना पड़ती है। मित्रता का आधार विश्वास है और “माया इसी विश्वास को मिटाकर मित्रों की संख्या घटा देती है।"10
सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में आत्मा के कुटिल भाव को माया कहा गया है।"
राजवार्त्तिक में दूसरे को ठगने के लिए जो कुटिलता या छल आदि किए जाते हैं, वे माया हैं। यह बताया गया है।
धवला के अनुसार –'अपने हृदय के विचारों को छुपाने की जो चेष्टा की जाती है, उसे माया कहते हैं।
अभिधानराजेन्द्रकोष में माया की जो अनेक परिभाषाएं दी गई हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं और वे माया के स्वरूप को स्पष्ट कर देती हैं - 1. 'सर्वत्र स्ववीर्यनिगहने - ___अर्थात्, सब जगह अपनी शक्ति को छिपाना माया है। आलस्य एवं बीमारी आदि का बहाना बनाकर सामर्थ्य होते हुए भी किसी कार्य को करने से इंकार कर देना माया है। आलस्य तो मनुष्य के शरीर में रहने वाला महान् शत्रु है।
आलस्य हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः ।। यह आलस्य ही हमें मायाप्रवृत्ति करने के लिए प्रेरित करता है और हमें मायावी बनाता है। वस्तुतः, कभी व्यक्ति में किसी कार्य को करने का सामर्थ्य नहीं होता है तो वह आलस्य और बीमारी का बहाना बनाकर मायाचार करता है, और अपनी शक्ति को छिपाता है।
1° माया मित्ताणि नासेइ। - दशवैकालिक, 8/38 ॥ आत्मनः कुटिलभावी माया ..। - सर्वार्थसिद्धि, 6/16/334/2 12 परातिसंघानतयोपहितकौटिल्यप्रायः प्रणिधिर्माया ..। - राजवार्त्तिक 8/9/5/574/31 13 स्वहृदयप्रच्छादार्थमनुष्ठानं माया। धवला, 12/4 “ अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग-6, पृ. 251
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