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है। 106 गांधीवाद की दृष्टि में अपरिग्रह का अर्थ यह नहीं है कि बस हमारे लिए जितना आवश्यक है, मात्र उतना ही संग्रह करेंगें। आवश्यकता की कोई सीमा नहीं है। इसलिए आवश्यकता के नाम पर संग्रह की अभिलाषा समस्या का सही निदान नहीं है। सही निदान है संग्रह की वृत्ति या स्वामित्व की भावना का त्याग। ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त स्वामित्व की वृत्ति का ही निषेध करता है। उसका नारा है –'स्वामी नहीं संरक्षक।
धन अर्जन की वृत्ति एवं धनसंचय की वृत्ति में अंतर -
____ अर्जन शब्द का अर्थ है - कमाना और संचय शब्द का अर्थ है - जोड़कर रखना। वस्तुतः जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए मानव को भोजन, वस्त्र, आवास आदि की आवश्यकता होती है। अतः जीवन की इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन का अर्जन एवं संच किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहं तो परिवार का भरण-पोषण और उचित ढंग से निर्वाह के लिए भी धन का अर्जन किया जाता है। धन के संचय के पीछे भविष्य की सुरक्षा को ध्यान में रखा जाता है। भविष्य के लिए धनसंचय कितना करना ? आज तक इसकी कोई निर्धारित सीमा नहीं रही है। धनसंचय के प्रति आसक्ति और तृष्णा के कारण मनुष्य सात पीढ़ी तक सुखपूर्वक खा सके, इतने धन का संचय कर लेने पर भी संतुष्ट नहीं हो पाता है। वह आठवी पीढ़ी भी सुखपूर्वक रह सके, इसलिए धन का संचय करता चला जाता है।
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है, वह केवल निवृत्तिपरक दर्शन नहीं है, अपितु इसमें प्रवृत्ति को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसमें 'अपरिग्रहवाद' के आदर्श को देखते हुए सामान्य व्यक्ति समझता है कि जैन धर्मदर्शन में धन का कोई स्थान नही है, क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि -"धन से मोक्ष नहीं मिलता है।"107 परन्तु दूसरी ओर जैनपरम्परा इस बात को भी स्वीकार करती है कि प्रत्एक तीर्थकर
106 आचारांगसूत्र 6/21 107 उत्तराध्ययनसूत्र - 4/5
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