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आतुरता का स्थान पश्चाताप ले लेता है, किन्तु प्रतिशोध में प्रकटतः आवेश नहीं होता, अप्रकट रूप से जो प्रतिशोधात्मक भाव होता है, वह स्थाई होता है । यह भाव व्यक्ति को तब तक क्रियाशील रखता है, जब तक वह निर्दिष्ट अहितकर कार्य सम्पन्न नहीं कर लेता । प्रतिशोध की भावना अन्य जीवों की अपेक्षा मानव में अधिक होती है, क्योंकि अन्य प्राणियों में मानव जैसी धारणा - शक्ति नहीं होती । अन्य प्राणी क्रुद्ध हो सकते हैं, क्रोधावेश में अपकार भी उनसे हो सकता है, किन्तु तत्काल अपकार के बदले में किया गया अपकार 'प्रतिशोध' नहीं कहलाता । 'प्रतिशोध' वह क्रोध है, जिसका हिसाब-किताब देर तक चलता रहे। प्रतिशोध रूपी क्रोध की भावना मानव-जाति के हर वर्ग में और हर युग में रही हुई है। राजनीतिक क्षेत्र हो या सामाजिक, व्यावसायिक हो या धार्मिक, अपराध का हो या प्रेम का, हर जगह यह भावना विद्यमान है। हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने "वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है ।" 24 लेख में कहा है जिससे हमें दुःख पहुँचा है, उस पर यदि हमने क्रोध किया और यह क्रोध यदि हमारे हृदय में बहुत दिनों तक टिका रहा तो वह वैर कहलाता है ।
आग से आग कभी नहीं बुझती, आग को पानी से शान्त किया जाता है, उसी प्रकार प्रतिशोध - रूपी क्रोध-अग्नि को क्षमारूपी जल से शान्त कर सकते हैं I
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जिस प्रकार गुरु का शिष्य के प्रति क्रोध और माता का बच्चों के प्रति क्रोध करना सकारात्मक पहलू हैं, क्योंकि क्रोध के द्वारा वे बच्चों के भविष्य को सुधारने का प्रयास कर रहे हैं, उसी प्रकार प्रतिशोध भी सकारात्मक रूप से निर्माणकारी स्वरूप में जब परिवर्तित होता है, तो वह व्यक्ति और समाज को विकास के क्षेत्र में आगे ले जाता है। ईर्ष्यालु और प्रतिशोध - भाव वाला व्यक्ति खींची गई लकीर को छोटा करने के लिए उसका कुछ भाग मिटाने के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचता, जबकि यही प्रतिशोध यदि सकारात्मक हो जाए, तो छोटी लकीर के साथ ही एक उससे लम्बी लकीर खींचकर पहले वाली लकीर को छोटा साबित कर देता है ।
24 चिन्तामणि, "क्रोध", आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 138
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