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6. मैं श्रुत-पारंगत हूँ - इस प्रकार शास्त्रज्ञान के मद से।
7. मेरे पास सबसे अधिक लाभ के साधन हैं - इस प्रकार लाभ के मद से।
8. मेरा ऐश्वर्य सबसे बढ़ा-चढ़ा है – इस प्रकार ऐश्वर्य के मद से।
9. मेरे पास नागकुमार या स्वर्णकुमार देव दौड़कर आते हैं – इस प्रकार के
भाव से।
10. मुझे सामान्यजनों की अपेक्षा विशिष्ट अवधिज्ञान और अवधिदर्शन उत्पन्न
हुआ है – इस प्रकार के भाव से मान उत्पन्न होता है।
उपर्युक्त प्रकार के भावों से मान उत्पन्न होता है।
मानोत्पत्ति के निम्न कारण भी हो सकते हैं -
1. दूसरों के द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर अपने को महान् समझने की प्रवृत्ति
होना। 2. भौतिक वस्तुओं व सुखों में विशेष ममत्व होना। 3. पूर्वसंचित मान-मोहनीय कर्मप्रकृति का उदय होना। 4. अनुकूल परिस्थितियों के हमेशा बनी रहने का मिथ्या भुलावा होना। 5. अपने से ऊँचे और बड़े गुणवानों के प्रति श्रद्धा व आदर का भाव न होना।
गौतम स्वामी ने पूछा –“हे प्रभो! मान किन-किन पर प्रतिष्ठित है, निर्भर है ?" प्रभु ने कहा – “मान चार बातों पर निर्भर है। इसलिए उसके चार प्रकार हैं - आत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित, तदुभयप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित । 1. आत्मप्रतिष्ठित - जो मान अपने किसी गुण पर या अपनी किसी वस्तु पर प्रतिष्ठित होता है, वह आत्मप्रतिष्ठित-मान कहलाता है, जैसे –'मैं कुशल वक्ता हूँ,
4"चउपत्तिद्विते माणे पण्णत्ते, तं जहा -
आतपट्टिते, परपतिट्टिते, तदुभयपतिहिते, अपतिट्ठिते। - स्थानांगसूत्र 4/1/77
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