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________________ 338 6. मैं श्रुत-पारंगत हूँ - इस प्रकार शास्त्रज्ञान के मद से। 7. मेरे पास सबसे अधिक लाभ के साधन हैं - इस प्रकार लाभ के मद से। 8. मेरा ऐश्वर्य सबसे बढ़ा-चढ़ा है – इस प्रकार ऐश्वर्य के मद से। 9. मेरे पास नागकुमार या स्वर्णकुमार देव दौड़कर आते हैं – इस प्रकार के भाव से। 10. मुझे सामान्यजनों की अपेक्षा विशिष्ट अवधिज्ञान और अवधिदर्शन उत्पन्न हुआ है – इस प्रकार के भाव से मान उत्पन्न होता है। उपर्युक्त प्रकार के भावों से मान उत्पन्न होता है। मानोत्पत्ति के निम्न कारण भी हो सकते हैं - 1. दूसरों के द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर अपने को महान् समझने की प्रवृत्ति होना। 2. भौतिक वस्तुओं व सुखों में विशेष ममत्व होना। 3. पूर्वसंचित मान-मोहनीय कर्मप्रकृति का उदय होना। 4. अनुकूल परिस्थितियों के हमेशा बनी रहने का मिथ्या भुलावा होना। 5. अपने से ऊँचे और बड़े गुणवानों के प्रति श्रद्धा व आदर का भाव न होना। गौतम स्वामी ने पूछा –“हे प्रभो! मान किन-किन पर प्रतिष्ठित है, निर्भर है ?" प्रभु ने कहा – “मान चार बातों पर निर्भर है। इसलिए उसके चार प्रकार हैं - आत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित, तदुभयप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित । 1. आत्मप्रतिष्ठित - जो मान अपने किसी गुण पर या अपनी किसी वस्तु पर प्रतिष्ठित होता है, वह आत्मप्रतिष्ठित-मान कहलाता है, जैसे –'मैं कुशल वक्ता हूँ, 4"चउपत्तिद्विते माणे पण्णत्ते, तं जहा - आतपट्टिते, परपतिट्टिते, तदुभयपतिहिते, अपतिट्ठिते। - स्थानांगसूत्र 4/1/77 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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