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किया गया जप, तप, सामायिक, स्वाध्याय और ज्ञान निष्फल हो जाता है। अतः हम अहंकार को छोड़ विनय को अपनाएँ। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है –'अपनी आत्मा को हित चाहता हुआ साधक अपने को विनय में स्थापित करे।69 जैसे हवा से भरे फुटबाल को खेल के मैदान में चारों ओर से पैरों की मार खाना पड़ती है, उसी प्रकार अभिमान से भरे जीव को भी कर्म की मार खाना पड़ती है। इसलिए मान का त्याग कर उस पर विजय प्राप्त कर मोक्ष-पथ पर अपने कदमों को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।
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69 "विणए ठवेज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो।
- उत्तराध्ययनसूत्र, 1/6
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