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2. पर - प्रतिष्ठित ( पर - विषयक )
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जब अन्य कोई क्रोधोत्पत्ति में कारणभूत हो, जैसे- नौकर के हाथ से घड़ी
गिरने पर मालिक को क्रोध आना ।
3. तदुभय प्रतिष्ठित (उभय विषयक)
जो क्रोध स्व और पर - दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है, जैसे कर्मचारी के हाथ से गिलास लेते-लेते छूट गया, गिर गया और टूट गया । कर्मचारी पर क्रोध इसलिए आया - मैने ठीक से पकड़ा नहीं था और तुमने छोड़ दिया। अपने प्रति क्रोध इसलिए आया कि इतने गर्म दूध का गिलास हाथ में क्यों लेने लगा ? मेज पर क्यों नहीं रखवा दिया?
4. अप्रतिष्ठित
वह क्रोध, जो केवल क्रोध - वेदनीय के उदय से उत्पन्न होता है, आक्रोश आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न नहीं होता। इस क्रोध में स्वयमेव चित्त क्षुब्ध होता रहता है, उद्विग्नता - चंचलता बनी रहती है ।
(क) क्षेत्र
प्रज्ञापनासूत्र 45 और स्थानांगसूत्र में अन्यापेक्षा भी क्रोधोत्पत्ति के चार कारण बताए गए हैं। 46
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खेत, भूमि आदि के निमित्त से क्रोध करना ।
घर, दुकान, फर्नीचर आदि के कारण से क्रोध करना ।
(ख) वस्तु
(ग) शरीर - कुरूपता, रुग्णता आदि कारण से क्षुब्ध होना ।
(घ) उपाधि सामान्य साधन-सामग्री निमित्त कलह करना ।
स्थानांगसूत्र में क्रोधोत्पत्ति के दस कारण बताए गए हैं। 47 जो निम्नोक्त हैं
45 प्रज्ञापनासूत्र, कषाय - पद - 14, गाथा, 5, उवंगसुत्ताणि 4, पृ. 187
46 चउहिं ठाणेहिं कोधुप्पत्ती सिता तं जहा
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क) दसहिं ठाणेहिं कोधुप्पती सिया कषायः एक तुलनात्मक अध्ययन
ख)
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खेत्तं, पडुच्चा, वत्युं पडुच्चा । - स्थानांगसूत्र 4 / 80
तं जहा- मणुणाई | स्थानांग 10 / सू 6 सा. डॉ. हेमप्रज्ञा श्री, पृ. 22
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