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सत्ता का मोह व्यक्ति को भ्रान्त किए बिना नहीं रहता है, क्योंकि सम्पत्ति आसक्ति को एवं सत्ता अहंकार को जन्म देती है। इस संबंध में एक विद्वान् ने कहा है -
___ यौवनं धन-सम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता।
एकैकमप्यनर्थाय, किमु यत्र चतुष्टयः ।। अर्थात्, युवावस्था हो, प्रचुर धनराशि हो, उस पर अपनी ही सत्ता हो और विवेक का अभाव हो -इन चारों में से एक भी अवगुण अनर्थकारी है, फिर चारों एक साथ हों, तो कहना ही क्या ? अर्थात् घोर अनर्थ होगा। मैं अतुल वैभवसम्पन्न हूँ -ऐसा अभिमान ऐश्वर्यमद कहलाता है।
भगवान् महावीर एक बार दशार्णपुर नगर के बाहर उद्यान में पधारे। राजा दशार्णभद्र 30 हाथी पर सवार होकर विशाल लाव-लश्कर से सुसज्जित चतुरंगिणी सेना, नाना प्रकार के नृत्यगान-वृंद एवं वाद्ययन्त्रों सहित ठाठ-बाट के साथ, सोना-चाँदी तथा रत्नों का दान देता हुआ प्रभु के पास पहुंचा और उनका वंदन किया। राजा को गर्व था कि जिस समृद्धि के साथ मैंने प्रभु को वंदन किया, ऐसा वन्दन करने को चक्रवर्ती तथा शक्रेन्द्र भी समर्थवान नहीं हैं। अवधिज्ञान से शक्रेन्द्र ने जब विशाल जुलूस के साथ गर्वोन्नत राजा को देखा, तब तत्काल इन्द्र अपनी पूर्ण व्यवस्था के साथ प्रभु के वंदन हेतु आए, इन्द्र के विमान को देख राजा विस्मय–मुग्ध हो गया –"कैसा अद्भुत विमान। हजारों हाथी, एक-एक ऐरावत हाथी की आठ-आठ सूंड। प्रत्येक सैंड पर विराट कमल । कमल की कर्णिकाओं पर नृत्य करती अप्सराएँ।" दशार्णभद्र का चेहरा निस्तेज हो गया। उसका अहंकार बर्फ की तरह गलने लगा, ऐश्वर्यमद बिखर गया। संयमरंग में उसका मन रंग गया और वह प्रभु चरणों में दीक्षित हो गया। 3. दर्प – बल से उत्पन्न अहंकार" अथवा गर्व में चूर होकर दुष्टता का परिचय देना दर्प है।
30 सामायिकसूत्र, गाथा 1 1 दर्पो बलकृतः। - तत्त्वार्थसूत्राधिगम, भाष्यवृत्ति 8/10 की टीका
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