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2. अनाभोगनिवर्तित-क्रोध -
क्रोध के दुष्परिणाम से अनजान होकर क्रोध करना अनाभोगनिवर्तित क्रोध है। आचार्य मलयगिरि के अनुसार, आदत से मजबूर होकर लाभ-हानि का विचार किए बिना अकारण/निष्प्रयोजन क्रोध करना अनाभोगनिवर्तित है।43
3. अनुपशान्त-क्रोध -
उदय को प्राप्त क्रोध अनुपशान्त-क्रोध है अर्थात् क्रोध के उदय की स्थिति अनुपशान्त-क्रोध है।
4. उपशान्त-क्रोध -
सुप्त क्रोध-संस्कार उपशान्त-क्रोध है।
क्रोधोत्पत्ति के कारण -
क्रोध का मूल कारण व्यक्ति स्वयं होता है, किन्तु बाह्य-निमित्तों के आधार पर क्रोध की उत्पत्ति को दृष्टिगत रखकर भी आगमों में विचार किया गया है। स्थानांगसूत्र" में क्रोधोत्पत्ति के चार स्थान बताए गए हैं। स्थानांगसूत्र में क्रोध को चतुःप्रतिष्ठित कहा गया है। वे इस प्रकार हैं -
1.आत्मप्रतिष्ठित, 2. परप्रतिष्ठित 3. तदुभय-प्रतिष्ठित, 4. अप्रतिष्ठित 1. आत्मप्रतिष्ठित (स्व-विषयक) - .
जो अपने ही निमित्त से उत्पन्न होता है, जैसे -हाथ से काँच की बनी हुई कोई वस्तु अपनी लापरवाही से नीचे गिरकर टूट जाने से मन क्षुब्ध हो जाता है, स्वयं को धिक्कारने लगते हैं, इस प्रकार का क्रोध आत्मप्रतिष्ठित होता है।
43 यदा त्वेनमेवं तथाविधमुहुर्तवशाद् गुणदोषविचारणाशून्यः परवशीभूय क्रोपं कुरूते ....
तदा स क्रोपोऽनाभोगनिवर्तितः -वही 44 चउपतिद्विते कोहे पण्णते तं जहा – 1.आतपतिट्टिते, 2. परपतिट्टिते, 3. तदुभयपतिहिते, 4. अपतिहिते - स्थानांगसूत्र 4/76
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