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होती है और छोटे-बड़े सभी प्राणियों में होती है। छोटे से छोटा प्राणी भी अपने लिए संग्रह करता है। अधिकार की उसमें मौलिक मनोवृत्ति होती है। 126
इसलिए संग्रहवृत्ति का कोई सार्वभौम मापदण्ड सम्भव नहीं है। इसलिए इसे व्यक्ति के स्वविवेक पर खुला छोड़ दिया जाए। यदि व्यक्ति विवेकशील और संयमी है तब वह समाज के हित में निर्णय ले सकता है। और स्थिति यदि भिन्न है तो यह अधिकार समाज को दे देना चाहिए। व्यक्ति का मौलिक कर्त्तव्य भी यही कहता है कि धन का अर्जन नैतिक प्रकार से और धर्मनीति से युक्त हो और धन का संचय
भी।
ममत्व वृत्ति का त्याग एवं समत्व वृत्ति का विकास -
यद्यपि परिग्रह-संज्ञा की उपस्थिति प्राणी मात्र में पाई जाती है, किन्तु परिग्रह-संज्ञा वस्तुतः आत्मा को पर से जोड़ने की प्रवृत्ति है। परिग्रह-संज्ञा के परिणाम स्वरूप व्यक्ति में ममत्व वृत्ति का विकास होता है। गीता में भी कहा गया
कि -
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधऽभिजायते।।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। गीता -2/62-63 अर्थात् – परिग्रह संबंधी वस्तु का चिन्तन करने से उसके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। उस आसक्ति के परिणाम स्वरूप वस्तुओं की कामना और इच्छा उत्पन्न होती है। कामनाओं की पूर्ति में व्यवधान आने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है, विवेक शक्ति नष्ट होने पर बुद्धिभ्रष्ट हो जाती है, और बुद्धि के भ्रष्ट होने से व्यक्ति का व्यक्तित्व ही नष्ट हो जाता है। इस प्रकार
126 महावीर का अर्थशास्त्र, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 50
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