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भी प्रकार की आसक्ति/ममत्व रखता है, वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। 28 यदि हम अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो जैनदार्शनिकों की दृष्टि में ममत्ववृत्ति दुःख की पर्यायवाची है और यही परिग्रह का मूल है। 29 ___ जैन आचार्यों ने जिस समत्व वृत्ति की चर्चा की है उसके मूल में ममत्ववृत्ति का त्याग ही प्रमुख है। यद्यपि ममत्ववृत्ति एक मानसिक तथ्य है, मन की ही एक वृत्ति है, तथापि उसका प्रकटन बाह्य है। अर्थात् उसका सीधा सम्बन्ध बाह्य वस्तुओं से है। वह सामाजिक जीवन को दूषित करती है। अतः ममत्व के प्रहाण के लिए व्यावहारिक रूप में परिग्रह का त्याग या उसकी मर्यादा आवश्यक है। “जो मनुष्य परिग्रह रूपी कीचड़ में फंसकर मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है, वह मूर्ख फूलों के बाणों से मानों मेरू पर्वत को खण्डित करना चाहता है। तात्पर्य यह है कि परिग्रह में ममत्व बुद्धि रखने वाले व्यक्ति के द्वारा भी समत्व रूपी मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त करना असम्भव है। 130 सुत्तनिपात में बुद्ध ने कहा है कि ममत्व रूपी आसक्ति ही बंधन है।131 जो भी दुःख होता है वह सब ममत्वबुद्धि (तृष्णा) के कारण ही होता है। 132 आसक्त मनुष्य आसक्ति के कारण नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं।33 ममत्व बुद्धि का क्षय ही दुःखों का क्षय है। जो व्यक्ति इस तृष्णा को वश में कर लेता है, उसके दुःख उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं, जैसे कमल पत्र पर रहा हुआ जल बिन्दु शीघ्र ही समाप्त हो जाता है।134 गीता में भी ममत्ववृत्ति के त्याग एवं समत्ववृत्ति के विकास को ही मुक्ति का मार्ग बताया गया है। - आसक्ति और लोभ नरक का कारण हैं।
128 सूत्रकृतांग, 1/1/2 129 दशवैकालिकसूत्र - 6/21 130 यः संगपंकानिर्मग्नो ऽप्यपवर्गाय चेष्टते
स मूढाः पुष्पनाराचैविभिन्धात्त्रिदशाचतम् ।। - ज्ञानार्णव, परिग्रह दोष विचार, 838 13" सुत्तनिपात, 68/5 132 वही - 38/17 133 थेरगाथा - 16/734 134 धम्मपद, 336
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