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अध्याय-6 क्रोध-संज्ञा {Instinct of Anger}
यह स्पष्ट है कि मनोविज्ञान में जिन्हें प्राणी की मूलप्रवृत्ति कहा जाता है, जैनदर्शन में उन्हें संज्ञा कहा गया है।' ए प्रवृत्तियाँ या संज्ञाएँ प्राणी में जन्मजात होती हैं। दूसरे, ए प्राणी के व्यवहार की प्रेरक या संचालक भी होती हैं। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से यदि हम विचार करें, तो संज्ञा को व्यवहार के प्रेरक-तत्त्व के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। स्थानांगसूत्र', प्रज्ञापनासूत्र', और प्रवचनसारोद्धार* में संज्ञा का जो दशविध वर्गीकरण उपलब्ध है, उसमें आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह-संज्ञाओं के साथ-साथ क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक एवं ओघ संज्ञाओं को भी सम्मिलित किया है, क्योंकि ए सब प्राणी-व्यवहार की प्रेरक हैं और व्यवहार के रूप में ए अभिव्यक्त भी होती हैं। जैनदर्शन में चारों कषायों को भी जागतिक व्यवहार की प्रेरक के रूप में माना गया है। प्रस्तुत प्रसंग में हम क्रोध-संज्ञा के स्वरूप एवं उसके लक्षणादि की विवेचना करेंगे। ___क्रोध एक आवेगात्मक अवस्था है, एक ऐसा मानसिक-मनोविकार है, जो व्यक्ति के शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक संतुलन को विकृत करता है, साथ ही क्रोध एक कषाय, संवेग {Emotion} और प्रतिशोधात्मक-भाव है, जो व्यक्ति को अपनी वास्तविक स्थिति से विचलित कर देता है। क्रोध के आवेग में व्यक्ति विचारशून्य हो जाता है। वह अपने हिताहित का विवेक खोकर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। विवेकशून्य आवेशात्मक-भाव को क्रोध-संज्ञा कहते है।'
प्रवचनसारोद्धार, द्वार 144-147, साध्वी हेमप्रभाश्री, पृष्ठ 78-81 स्थानांगसूत्र - 10/105 प्रज्ञापनासूत्र, पद-8 + आहार भय परिग्गह मेहुण तह कोह माण माया य ।
लोभो ह लोग सन्ना दस भेया सव्वजीवाणं ।। -- प्रवचनसारोद्धार, द्वार 146 'उत्तराध्ययनसूत्र, दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्त्व - साध्वी डॉ विनितप्रज्ञा, पृ. 491
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