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धन का संग्रह रखे और कितना त्याग दे यह उसकी आवश्यकता और उसके स्वविवेक पर निर्भर करेगा। क्योंकि प्रत्एक की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न हैं। एक उद्योगपति की आवश्यकताएँ और एक प्रोफेसर की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती है। यही नहीं एक देश के नागरिक की आवश्यकताएँ दूसरे देश के नागरिक की आवश्यकताओं से भिन्न होगीं। युग के आधार पर भी आवश्यकताएँ बदलती हैं। अतः धनसंचय की सीमा का निर्धारण देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति पर निर्भर होगा। आज अर्थशास्त्री भी इस बात को मानकर चलते हैं कि जो वस्तुएँ एक व्यक्ति के लिए आवश्यक हैं वे ही दूसरे के लिए विलासिता हो सकती है। एक कार डॉक्टर के लिए आवश्यक और विश्वविद्यालय के केम्पस में रहने वाले प्रोफेसर के लिए विलासिता की वस्तु होगी। अतः धनसंचय की मर्या का कोई सार्वभौम मापदण्ड संभव नहीं है।
भगवान् महावीर के समय के समाज की चर्चा करें तो उन्होंने जिस व्रती समाज का निर्माण किया था, उसमें स्वामित्व और उपभोग दोनों का सीमाकरण था। स्वामित्व एवं मौलिक मनोवृत्ति है। मनोविज्ञान के संदर्भ में हम स्वामित्व की मीमांसा कर सकते हैं। मैक्ड्यूल आदि मानसशास्त्रियों ने मौलिक मनोवृत्तियों का एक वर्गीकरण किया। महावीर स्वामी ने मनोवृत्ति का स्वरूप बताते हुए कहा – मनुष्य की एक ही मनोवृत्ति है और वह है अधिकार की भावना, संग्रह की भावना। सब कुछ अधिकार की भावना से ही हो रहा है। दूसरी मनोवृत्तियाँ उसकी उपजीवी हैं। यह अधिकार की मनोवृत्ति मनुष्य में ही नहीं, छोटे से छोटे जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों में भी होती है। आचार्य मलयगिरि ने इस ममत्व और अधिकार की भावना को समझाने के लिए अमरबेल का उदाहरण दिया।
"अमरबेल प्रारम्भ में किसी पेड़ का सहारा लेकर ऊपर चढ़ती है। फिर वह संपूर्ण पेड़ पर अपना आधिपत्य जमा लेती है, उस पर छा जाती है और धीरे-धीरे उसे खा जाती है। अधिकार की भावना मधुमक्खी में भी होती है, एक चींटी में भी
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