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4. परिग्रहपरिमाणव्रत -
जिस प्रकार अपरिगह एक महाव्रत के रूप में मुनियों के लिए प्रस्तुत किया गया है। उसी प्रकार अपरिग्रहाणुव्रत गृहस्थों के लिए विहित है। श्रमण साधक के लिए सम्पूर्ण परिग्रह का परित्याग है, लेकिन गृहस्थ के लिए यह संभव नहीं है। अतः गृहस्थ को परिग्रह से अधिकाधिक बचने के लिए परिग्रह की केवल सीमा रेखा निश्चित की गई है। क्योंकि सभी आरम्भों का मूल कारण परिग्रह है, इसलिए श्रमणोपासक या श्रावक धन-धान्यादि परिग्रह अल्प से अल्प करे। 82 इसीलिए अपरिग्रहाणुव्रत का परिग्रह परिणामव्रत अथवा इच्छापरिमाणवत अथवा स्थूल परिग्रह विरमणव्रत भी कहते हैं। परिग्रह की तृष्णा को अपने लिए अहितकर समझकर अंतरंग
और बहिरंग सभी प्रकार के परिग्रह के प्रति ममत्व-भाव हटाना। परिग्रह का भार कम करने के उपाय करना और अपनी शक्ति के अनुरूप उनकी अव्यतम सीमा निर्धारित करके उससे अधिक संग्रह का त्याग कर देना यही 'परिग्रह परिमाण अणुव्रत' है। यह अपनी “अंतहीन इच्छाओं को सीमित करने का कौशल है। अतः इसका दूसरा नाम ‘इच्छा-परिमाणव्रत' भी है। ___परिग्रह जीवन निर्वाह का आवश्यक साधन है, लेकिन यह साधन भी यदि साध्य ही बन जावे तो साधन की सम्भावना ही नहीं रहती है। जीवन में प्रगति किसी भी एक आदर्श की ओर हो सकती है। लेकिन जब जीवन में विभिन्न आदर्शों की स्थापना एक साथ कर ली जाती है, तो निश्चय ही जीवनपथ विकृत हो जाता है और साधक को किसी भी लक्ष्य पर पहुंचाने में समर्थ नहीं रहता। भौतिक समृद्धि की उपलब्धि और आध्यात्मिक विकास दोनों को एक साथ आदर्श नहीं बनाया जा सकता
है।
वस्तुतः वस्तुओं का परिग्रह जड़ है, उसमें हमारे शुद्ध चैतसिक स्वरूप को बाधा पहुंचाने का सामर्थ्य भी नहीं है, पर जब उन वस्तुओं के प्रति अपेक्षाबुद्धि,
82 संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः ।
तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहम् ।। - योगशास्त्र 2/110 83 उपासकदशांगसूत्र - 1/45
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