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परिग्रहासक्ति, परिग्रह-तृष्णा या परिग्रह-संग्रह की इच्छा जाग्रत हो जाती है, तो वह साधना में बाधक बनती है। इसलिए सूत्रकार ने परिग्रह परिमाण व्रत कहने की अपेक्षा इच्छापरिमाणव्रत कहा है। एक अल्प–परिग्रही व्यक्ति में भी यदि परिग्रह–इच्छा मौजूद है तो वह साधना में प्रगति नहीं कर सकता। कहा गया है"समूचे संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए दूसरा कोई बंधन नहीं है।"84 साधना की दृष्टि से इच्छाओं का परिसीमन अति आवश्यक है। जैन धर्मदर्शन इच्छा, तृष्णा या ममत्व के परिसीमन के प्रति अत्यधिक जागरूक रहा है। इच्छा का सम्बन्ध बाह्य परिग्रह से ही है, अतः उसका परिसीमन भी आवश्यक है। "जैन विचारणा में गृहस्थ साधक को नौ प्रकार के परिग्रह की मर्यादा निश्चित करना होती है। 85
1. क्षेत्र - कृषि भूमि अथवा अन्य खुला हुआ भूमि-भाग। 2. वास्तु – मकान आदि अचल सम्पत्ति। 3. हिरण्य - चाँदी अथवा चाँदी की मुद्राएँ। 4. स्वर्ण - स्वर्ण अथवा स्वर्ण मुद्राएँ। 5. द्विपद – दास, दासी, नौकर, कर्मचारी इत्यादि । 6. चतुष्पद - पशुधन, गाय, घोड़ा, बकरी आदि। 7. धन - चल सम्पत्ति। 8. धान्य - अनाजादि। 9. कुप्य - घर गृहस्थी का अन्य सामान। ___ हर एक गृहस्थ का यह कर्तव्य है कि वह इन सभी वस्तुओं की अपने लिए सीमा निर्धारित करे। उस सीमा का उल्लंघन न करे और यदि संभव हो तो उस सीमा को वस्तुओं के परिप्रेक्ष्य में और कम करता जाए।
एक बार यदि गृहस्थ अपने लिए सीमा निर्धारित कर लेता है तो उसे इस परिग्रह परिमाणव्रत को "मणसा, वाचा, कर्मणा" निभाने का प्रावधान है। गृहस्थ इस
84 नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अस्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए - प्रश्नव्याकरणसूत्र, 1/5
85 क्षेत्रवास्तु धनधान्यं कुप्यभाण्डदासदासीकनकम हिरण्यादि वस्तुषु मामू परिग्रह प्रमाणव्रतम् - उपासकाध्याय सूत्र. 9/50
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