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28. अनर्थक - इसका तात्पर्य है - निरर्थक। पारमार्थिक-हित या सुख के लिए
परिग्रह और निरर्थक निरुपयोगी है। इतना ही नहीं वह वास्तविक हित और सुख के लिए बाधक है।
29. आसक्ति – ममता, मूर्छा, गृद्धि आदि परिग्रहरूप हैं। 30. असंतोष – असंतोष भी परिग्रह का एक रूप है, जिसका तात्पर्य है -मन में बाह्य-पदार्थों के प्रति सन्तुष्टि न होना। भले ही पदार्थ न हो, परन्तु अन्तस में यदि असन्तोष है, तो भी परिग्रह है।
अतः, 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तों' –इस आगमोक्ति के अनुसार ममत्वपूर्वक ग्रहण किए जाने वाले धन-धान्य, महल-मकान, कुटुम्ब-परिवार, यहाँ तक कि शरीर भी परिग्रह है। इस प्रकार ये तीस नाम परिग्रह के हैं। शान्ति, सन्तोष, समाधि और आनन्दमय जीवन यापन करने वालों को परिग्रह के इन रूपों को भलीभांति समझ कर त्यागना चाहिए।
जैनदर्शन में परिग्रह के प्रकार -
जैन-आचार्यों के अनुसार, व्यक्ति जब तक सांसारिक-वस्तुओं और उनसे उत्पन्न सुखों की ओर उदासीनता की भावना नहीं लाता है, तब तक नैतिक और आध्यात्मिक-जीवन की शुरूआत नहीं हो सकती है, इसलिए परिग्रह के त्याग एवं निवृत्ति की भावना आवश्यक है। वस्तुतः, परिग्रह धन और सम्पत्ति तक ही सीमित नहीं है। मनुष्य का अपने घर, परिवार तथा संबंधित वस्तुओं के प्रति इतना अधिक मोह बढ़ जाता है कि वह उन सबको अपनी संपत्ति समझ लेता है, इसलिए परिग्रह के प्रकारों को समझना आवश्यक है, ताकि उनका त्याग कर वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सके।
जैन-शास्त्रों में सिर्फ बाह्य-पदार्थों को ही परिग्रह नहीं माना गया है, अपितु इन भावनाओं, इच्छाओं और आवेगों-संवेगों आदि को भी परिग्रह माना गया है। जिनके कारण मानव की धर्म-साधना, नैतिकता और नैतिक आचार, विचार, व्यवहार
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