________________
249
में तनिक भी व्यवधान पड़ता है, वे सभी परिग्रह हैं। इस दृष्टिकोण से परिग्रह के दो भेद हैं - अंतरंग-परिग्रह और बाह्य-परिग्रह ।
भगवतीसूत्र में परिग्रह के तीन भेद बताए हैं - 1. कर्म-परिग्रह – राग-द्वेष के वशीभूत होकर अष्ट प्रकार के कार्यों को ग्रहण करना कर्म-परिग्रह है। 2. शरीर-परिग्रह – विश्व में जितने भी जीव हैं, वे सभी शरीरधारी हैं। यह शरीर भी परिग्रह है, क्योंकि इसके प्रति ममत्व-वृत्ति से परिग्रह उत्पन्न हो जाता है। 3. बाह्य भांड-परिग्रह – बाह्य-वस्तु और पदार्थ भी ममत्त्ववृत्ति से परिग्रह रूप हो जाते हैं।
ये तीनों इसलिए परिग्रह हैं कि ए जीव के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं। ये राग-द्वेष की अभिवृद्धि करते हैं, आसक्ति के कारण बनते हैं, इसलिए इन्हें परिग्रह कहते हैं।
अन्तरंग-परिग्रह -
आत्मा के वे परिणाम, जो कर्मबन्ध या मूर्छा आदि के प्रत्यक्ष हेतु हैं, वे अंतरंग-परिग्रह है। यद्यपि ये बाहर से दृष्टिगोचर नहीं होते, किन्तु अन्तर्मानस में चोर की तरह छिपे रहते हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र' में अंतरंग-परिग्रह का विश्लेषण करते हुए कहा है - लालसा, तृष्णा, इच्छा, आशा और मूर्छा, ये सभी असंयमरूप अंतरंग-परिग्रह हैं। इन्हीं के कारण बाह्य-परिग्रह का संचय होता है।
50 कम्म पग्गिहे, सरीर परिग्गहे, वाहिर भंडमत्त परिग्गहे। - भगवतीसूत्र- 18/7 " प्रश्नव्याकरणसूत्र, श्री मधुकर मुनि, पृ. 145
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org