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6. परिग्रह के कारण भोगवृत्ति बढ़ना
सुख (भोग) का अर्थी संग्रह में प्रवृत्त होता है। जो सुख का अर्थी होता है वह बार-बार सुख की कामना करता है। इस प्रकार वह अपने द्वारा कृत कामना की व्यथा से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है । सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है। भूख से कोई न मरे, इस व्यवस्था में वर्तमान युग सफल हुआ है । किन्तु मुट्ठीभर लोगों के संग्रह ने असंख्य लोगों को गरीबी का जीवन जीने के लिए विवश कर दिया है। दूसरी समस्या यह है कि अतिसंग्रह वाले भोगविलास एवं ऐशो आराम का जीवन व्यतीत कर रहे हैं, किन्तु दिनों-दिन अति सम्पन्न लोग ही मानसिक तनाव, भय और आतंक का जीवन जी रहे हैं। धर्म उनके जीवन से खत्म होता जा रहा है, और भोग-विलास में उनका समय अधिक व्यतीत हो रहा है । "जिस प्रकार सम्पत्तिशाली व्यक्ति को जंगल में चोर लूट लेते हैं, उसी प्रकार संसाररूपी अरण्य में प्राणी को शब्दादि - विषयरूपी लुटेरे संयमरूपी सर्वस्व लूटकर भिखारी बना देते हैं । इसी तरह आग लगने पर अधिक परिग्रह वाला भागकर झटपट निकल नहीं सकता, वैसे ही संसाररूपी अटवी में रहा हुआ पुरुष कामरूपी अग्नि जला देती है । स्त्रीरूपी शिकारी उसे संसार की मोहमाया के जाल में फंसा लेते हैं । उस परिग्रही यात्री को संयममार्ग पर आगे बढ़ने नहीं देती । भोगवृत्ति के कारण उसकी दुर्गति हो जाती है । विलासिता केवल भोग का पोषण है। इसमें काम और अहं दोनों वृत्तियाँ निहित हैं । विलासिता में मनुष्य को कहीं पता नहीं होता । केवल संगह और अर्थ ही बचता है । विलासिता न हमारी आवश्यकता है न अनिवार्यता । न सुविधा है न कोरा मनोरंजन । वह केवल भोगवृत्ति का उच्छृंखल रूप है।
7. गरीबी की खाई चौड़ी हो जाना -
परिग्रह के अर्जन, संग्रह और विसर्जन सभी सीधे-सीधे समाज जीवन को प्रभावित करती है। अर्जन सामाजिक आर्थिक प्रगति को प्रभावित करता है तो संग्रह अर्थ के समवितरण को प्रभावित करता है। इस कारण अमीर वर्ग में संग्रहवृत्ति के
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69 सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेदि । - आचारांगसूत्र 2/6'151
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