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वैदिक-परम्परा में आश्रम-व्यवस्था को मान्य किया गया है। उसमें सर्वप्रथम आश्रम ब्रह्मचर्याश्रम है। ब्रह्मचर्य की सुदृढ़ नींव पर है। अन्य आश्रम टिके हुए हैं। ब्रह्मचर्य से बुद्धि पूर्ण रुप से निर्मल रहती है, इसलिए वह प्रत्येक विषय को सहज रुप से ग्रहण कर सकती है। वेदों के प्रशस्त भाष्यकार सायण-119 ने ब्रह्मचारी शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है - वेदात्मक-ब्रह्म का अध्ययन करना जिसका स्वभाव है, वही ब्रह्मचारी है। वेद ब्रह्म हैं। वेदाध्ययन के लिए आचारणीय कर्म ब्रह्मचर्य है। ऋग्वेद'20, अथर्ववेद, तैत्तरीयसंहिता2 आदि में ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारी शब्द प्राप्त होते हैं। शतपथ ब्राह्मण23 ग्रन्थों में भी ब्रह्मचर्य शब्द की व्याख्या है।
वैदिक-साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्याश्रम में तो ब्रह्मचर्य की प्रधानता थी ही, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम में भी ब्रह्मचर्य को ही महत्त्व दिया गया था, केवल गृहस्थाश्रम में कामवासना की तृप्ति की छूट थी, किन्तु वह छूट बहुत ही सीमित थी, केवल सन्तानोत्पत्ति के लिए। गृहस्थाश्रम में भी अधिक समय तो ब्रह्मचर्य का पालन ही किया जाता था। ब्रह्मचर्य : अपूर्व कला -
ब्रह्मचर्य जीवन की साधना है। वह एक अपूर्व कला है, जो विचार और व्यवहार को आचार में परिणत करती है। उससे शारीरिक-सौन्दर्य में निखार आता है, मन विशुद्ध बनता है। वह कहने की वस्तु नहीं, आचरण करने की वस्तु है।
ब्रह्मचर्य में अमित शक्ति है। वह शक्ति मन में एक अपूर्व क्षमता का संचार करती है। अन्तरात्मा में एक प्रबल प्रेरणा उबुद्ध करती है। प्रचण्ड शक्ति व दैदीप्यमान तेज के कारण जीवन में अपूर्व ज्योति जगमगाने लगती है। ब्रह्मचर्य ऐसी
॥ अथर्ववेद – 11-5-1, 11-5-16 (सायणभाष्य) 120 ऋग्वेद - 10-109-5 121 अथर्ववेद - 5/16 15, 11-5-1-26 122 तैत्तरीय संहिता 3-10-5 123 शतपथ ब्राह्मण - 9-5-4-12
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