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परस्त्री से तात्पर्य अपनी धर्मपत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों से है। चाहे थोड़े समय के लिए किसी को रखा जाए, उपपत्नी के रुप में, किसी की परित्यक्ता, व्यभिचारिणी, वेश्या, दासी, किसी की पत्नी अथवा कन्या ये सभी परस्त्रियाँ हैं ।
उनके साथ उपभोग करना अथवा वासना की दृष्टि से देखना, क्रीड़ा करना, प्रेमपत्र लिखना, विभिन्न प्रकार के उपहार देना, उसे प्राप्त करने का प्रयास करना, उसकी इच्छा के विपरीत कामक्रीड़ा करना व्रत के विरुद्ध है और इच्छा से करना परस्त्री सेवन है ।
वाल्मिकी ऋषि 171 ने लिखा है परस्त्री से अनुचित सम्बन्ध रखने जैसा कोई पाप नहीं है । कविकुल गुरु कालिदास 172 ने परस्त्री सेवन को अनार्यों का कार्य कहा है। आचार्य मनु 173 ने कहा है इस विश्व में पुरुष के आयुष - बल को क्षीण करने वाला परस्त्री-सेवन जैसा अन्य कोई निकृष्ट कार्य नहीं है। बाईबिल में भी कहा है
जो व्यक्ति परस्त्री के साथ व्यभिचार करता है, वह विवेकशून्य है और स्वयं अपनी आत्मा का हनन करता है । 'ओल्ड टेस्टमेन्ट में कहा है - "पराई स्त्री की सुन्दरता देखकर उसकी अभिलाषा मत कर कहीं ऐसा नहीं हो कि वह तुम्हें अपने कटाक्षों में फंसा ले।"
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171 परदाराभिमर्शातु नान्यत पापतरं महत् । बाल्मिकी रामायण 338 / 30
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अभिज्ञान शाकुन्तलम्
गांधीवाद की दृष्टि में स्वपत्नीसन्तोष भी ब्रह्मचर्य ही है, क्योंकि विवाह और गृहस्थाश्रम कामवासना को सीमित करने का प्रयास है। विवाह का उद्देश्य केवल विषय-वासनाओं का सेवन ही नहीं है। यही कारण है कि पत्नी को भोग - पत्नी न कहकर धर्मपत्नी कहा गया है। विवाह द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित करता है और स्वयं को धर्म-मार्ग में उत्प्रेरित करता है, लेकिन इससे भी आगे बढ़कर जैनदर्शन के समान गांधीवाद भी गृहस्थ - जीवन में पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन की सम्भावना को स्वीकार करता है और उस पर जोर भी देता । गांधीजी का जीवन
172 अनार्यः परदार व्यवहारः । -
173 नहीदृशमनायुष्यं लोके किंचित् दृश्यते
यादृशं पुरूषस्येह परवसेपसेवनम् - मनुस्मृति 4 / 134
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