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जिसे यह विषैली तृष्णा घेर लेती है, उसके दुःख वैसे ही बढ़ते रहते हैं, जैसे खेतों में वीरण घास बढ़ती रहती है। 1 इच्छाओं (आसक्ति) का क्षय ही दुःखों का क्षय है । जो व्यक्ति इस तृष्णा को वश में कर लेता है, उसके दुःख उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं, जैसे कमलपत्र पर रखा हुआ जल - बिन्दु शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। 32 इस प्रकार, बुद्ध की दृष्टि में भी आसक्ति (परिग्रह ) ही वास्तविक दुःख है और अनासक्ति ( अपरिग्रह ) ही सच्चा सुख है । बुद्ध की दृष्टि में आसक्ति, चाहे वह पदार्थों की हो, चाहे वह किसी अतीन्द्रिय तत्त्व की हो, बन्धन ही है । अस्तित्व की चाह तृष्णा है और मुक्ति तो वीतरागता या अनासक्ति (अपरिग्रह ) में ही प्रतिफलित होती है, क्योंकि आसक्ति ही बन्धन है । 34 बुद्ध कहते हैं कि परिग्रह या संग्रहवृत्ति का मूल यही आसक्ति या तृष्णा है, कहा भी गया है कि परिग्रह का मूल इच्छा है, अतः बुद्ध की दृष्टि में भी अनासक्ति की वृत्ति के विकास के लिए परिग्रह का विसर्जन आवश्यक है ।
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महात्मा गांधी ने तो गीता को 'अनासक्ति - योग' ही कहा है। गीताकार ने भी यह स्पष्ट किया है कि आसक्ति का तत्त्व ही व्यक्ति को संग्रह और भोगवासना के लिए प्रेरित करता है। कहा गया है कि आसक्ति के बन्धन में बंधा हुआ व्यक्ति कामभोग की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक अर्थ-संग्रह करता है, इसलिए आर्थिक–क्षेत्र में अपहरण, शोषण और संग्रह की जो बुराइयाँ पनपती हैं वे सब मूलतः आसक्ति से प्रत्युत्पन्न हैं। गीता में कहा है कि आसक्ति (इच्छा) और लोभ (परिग्रह) नरक के कारण हैं । काम - भोगों में आसक्त मनुष्य ही नरक और अशुभ योनियों में
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धम्मपद, 335
132 वही - 336
33 मज्झिमनिकाय - 3 /20
34 सुत्तनिपात - 68/5
35 महानिद्देसपालि - 1/11/107
36 गीता - 16/12
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