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अज्ञानमय भाव है। वे भाव ज्ञानी के नहीं हो सकते हैं।” ज्ञानी को आहार की भी इच्छा नहीं है, इस कारण ज्ञानी का आहार करना भी परिग्रह नहीं है। यदि आहार इच्छापूर्वक, आसक्तिपूर्वक और स्वाद के लिए किया जाता है, तो वह भी परिग्रह बन जाता है। जैन-कर्मसिद्धान्त यह स्पष्ट करता है कि असातावेदनीय-कर्म के उदय से जठराग्नि से क्षुधा उत्पन्न होती है, वीर्यांतराय के उदय से उसकी वेदना सही नहीं जाती और चारित्रमोह के उदय से ग्रहण करने की इच्छा जाग्रत होती है। इसलिए इच्छा को कर्मजन्य माना है। परिग्रह के स्वरूप को बतलाते हुए कहा गया है -ज्ञानी खाने की कोई इच्छा रखता ही नहीं है। यह अनिच्छा ही अपरिग्रह है। वह भूख को देखता है, पर भूख से व्याकुल नहीं होता है। इच्छा का अभाव ही अपरिग्रह है। प्यासा व्यक्ति पानी पीता है, वह आवश्यकता है, पर शराबी शराब पीता है, वह इच्छापूर्वक है, इसलिए वह परिग्रह है। साधु वस्त्रों का धारण लज्जा को ढकने के लिए करता है, पर गृहस्थ वस्त्रों का प्रयोग सुन्दर दिखाई देने के लिए करता है। इस प्रकार रागभाव और आसक्तिपूर्वक की गई क्रिया परिग्रहस्वरूप होती
है।
आसक्ति/तृष्णा-परिग्रह :
बौद्ध-परम्परा में भी इच्छा (तृष्णा) को बन्धन एवं दुःखों का मूल माना गया है। बुद्ध कहते हैं कि तृष्णा के नष्ट हो जाने पर सभी बन्धन स्वतः नष्ट हो जाते हैं। वे कहते हैं कि चाहे स्वर्ण-मुद्राओं की वर्षा होने लगे, लेकिन उससे भी तृष्णायुक्त मनुष्य की तृप्ति नहीं होती। भगवान् बुद्ध की दृष्टि में तृष्णा ही दुःख है और
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27 अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदि अधम्म
अपरिग्गहो अधम्मस्य जाणगो तेण सो होदि।। - समयसार, गाथा 211 28 अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदि असणं
अपरिग्गहो दुं असणस्स जाणगो तेण सो होदि।। - वही, गाथा 212 अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो पाणीय णिच्छदे पाण अपरिग्गहो द पाणस्स जाणगो तेण सो होदि - वही. गाथा-13
29 धम्मपद, 186
30 संयुत्तनिकाय, 2/12/66, 1/1/65
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