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जन्म लेता है। 7 श्रीकृष्ण कहते हैं - हे अर्जुन! तू कर्मों के फल में रही हुई आसक्ति का त्याग कर निष्काम भाव से कर्म कर। ॐ पुराणों में भी परिग्रह का मूल कारण ममत्वबुद्धि को माना है । 'परि समन्तात् मोहबुद्धया गृह्यते यः स परिग्रहः', अर्थात् मोह (ममत्व) बुद्धि के द्वारा जो पदार्थ को ग्रहण किया जाए वह परिग्रह है । पातंजल योगसूत्र में अपरिग्रह को पांचवे यम के रूप में स्वीकार किया गया है। कहा है कि परिग्रह का मूल कारण ममत्व, आसक्ति या तृष्णा है । परिग्रह या वस्तुओं का संग्रह व्यक्ति विषय-भोग हेतु करता है। चूंकि भोगों की पूर्ति पदार्थों से होती है, अतः भोगाकांक्षी को संसार में जन्म लेना आवश्यक होता है । संसार में वही जन्म लेता है, जिसमें सांसारिक भोगों की कामना है। अभिप्राय यह है कि परिग्रह भोगेच्छाओं का द्योतक है और भोगेच्छाएँ संसार में जन्म लेने का कारण हैं । 11 यह उक्ति प्रसिद्ध है - 'न तृष्णायाः परो व्याधि न संतोषात्परं सुखम् अर्थात् तृष्णा से बड़ी कोई व्याधि नहीं एवं संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं । तृष्णा द्रौपदी के चीर के समान है, जो छोड़ने के बाद ही समाप्त होती है। यह बिना पाल के तालाब जैसी है, जिसमें कितना भी पानी आ जाए वह भरता नहीं है । परिग्रह का मूल मोह है, आसक्ति है । बाह्य - परिग्रह कभी भी बाधक नहीं होता, यदि मोह क्षीण हो जाता है, तो व्यक्ति के लिए परिग्रह कोई महत्त्व नहीं रखता। इसलिए कहा गया है - "जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सींचिएं, वह हरा-भरा नहीं होता। मोह के क्षीण होने पर कर्मवृक्ष फिर से हरा-भरा नहीं होता है। मूल को सींचने पर ही फल लगते हैं, मूल नष्ट होने पर फल भी नष्ट हो जाते हैं । '
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37 वही - 16/16
38 वही - 16/16
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" पुराणों में जैनधर्म, साध्वी डॉ. चरणप्रभा, पृ. 138
40 अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।
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41 अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्ता संबोधः ।
सुक्क मूले जहा रूक्खे, सिच्चमाणे ण एवं कम्मा न रोहंति, मोहणिज्जे खयंगते ।।
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पातंजलयोगसूत्र -2/30
वही - 2 / 39
रोहति
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दशाश्रुतस्कन्ध - 5/14
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