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कालिदास भारतीय संस्कृत-साहित्य के कवियों में अपना मूर्धन्य स्थान रखते हैं। कुमारसम्भव'67 उनकी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। उसमें उन्होंने महादेव के उग्र तप का निरुपण किया है। उस तप के वर्णन को पढ़कर पाठक आश्चर्यचकित हो जाते हैं, पर वही महादेव जब पार्वती के अपूर्व सौन्दर्य को निहारते हैं, तो साधना से विचलित हो जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य की साधना कितनी कठिन और कठिनतम है।
भारत के तत्त्वदर्शियों ने कामवासना पर विजय प्राप्त करने हेतु अत्यधिक बल दिया है। कामवासना ऐसी प्यास है, जो कभी भी बुझ नहीं सकती। ज्यों-ज्यों भोग की अभिवृद्धि होती है, त्यों-त्यों वह ज्वाला प्रज्ज्वलित होती जाती है और एक दिन मानव की सम्पूर्ण सुख-शान्ति उस ज्वाला में भस्मीभूत हो जाती है। गृहस्थ-साधकों के लिए कामवासनाओं का पूर्ण रुप से परित्याग करना बहुत ही कठिन है, क्योंकि जो महान् वीर हैं, मदोन्मत्त गजराज को परास्त करने में समर्थ हैं, सिंह को मारने में सक्षम हैं, वे भी कामवासनाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते, इसलिए अनियन्त्रित कामवासनाओं को नियंत्रित करने के लिए तथा समाज में सुव्यवस्था स्थापित करने हेतु मनीषियों ने 'विवाह-संस्कार168 और स्वदारसन्तोषव्रत169 . का विधान किया है, ताकि वह अपनी विधिवत् विवाहित पत्नी में संतोष करके शेष सभी परस्त्री आदि के साथ मैथुन-विधि का परित्याग करे। इस प्रकार, असीम वासनाओं को प्रस्तुत व्रत के माध्यम से सीमित कर सकते हैं। योगशास्त्र में कहा है -“समझदार गृहस्थउपासक परलोक में नपुंसकता और इहलोक में राजा या सरकार आदि द्वारा इन्द्रियच्छेदन वगैरह अब्रह्मचर्य के कड़वे फल को देखकर या शास्त्रादि द्वारा जानकर परस्त्रियों का त्याग करे और अपनी स्त्री में संतोष रखें।"170
167 कुमारसम्भव महाकाव्य से 168 आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चौदहवां, निर्णयसागर मुद्रणालय बॉम्बे प्रथम संस्क.1922, पृ. 31 169 सदारसंतोसिए अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं पच्चक्खाइ। - उपासकदशांगसूत्र- 1/44 170 षष्ठत्वमिन्द्रियच्छेदं, वीक्ष्याब्रह्मफलं सुधीः
भवेत् स्वदार संतुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत्। - योगशास्त्र - 2/76
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