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अस्थि को चबाता हुआ रस को प्राप्त नहीं करता, किन्तु अपने ही तालु से निकले हुए रक्त को चूसता हुआ सुख मानता है, ठीक उसी प्रकार कुत्ते की तरह कामी व्यक्ति का भी एक भ्रम होता है कि स्त्रीभोग से उसे सुख मिल रहा है, वास्तव में देखा जाए तो, वह भोग द्वारा अपनी ही शक्ति का व्यय करता है। भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है -"आदमी भोग को नहीं भोगता है, परंतु भोग ही उसका भोग ले लेता है।" ईंधन से अग्नि और जल से सागर कभी तृप्त नहीं होता। ठीक, इसी प्रकार, भोग से आत्मा कभी तृप्त नहीं होती है, बल्कि वह भूख और अधिक बढ़ती ही जाती है। सोलह हजार स्त्रियाँ जिसके अंतःपुर में थी – ऐसा रावण185 भी अतृप्त ही था, क्योंकि वह भोग से तृप्ति पाना चाहता था, जो कदापि संभव नहीं है। काम-विजय कठिन है। अन्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना तो भी आसान है, परन्तु स्पर्शेन्द्रिय को जीतना अत्यंत ही कठिन है। अन्य तीन महाव्रतों का पालन करना तो फिर भी आसान है, परन्तु ब्रह्मचर्य-महाव्रत का पालन करना अत्यंत ही कठिन है। अन्य सभी व्रतों के लिए उत्सर्ग व अपवाद-मार्ग का विधान है, परंतु मैथुन-त्याग में कहीं भी अपवाद नहीं है, क्योंकि रागभाव के बिना मैथुन की प्रवृत्ति शक्य ही नहीं। युवावस्था में काम-वासना का जोर अधिक होता है, अतः उस पर विजय प्राप्त करने के लिए निम्न उपाय बताए गए हैं -
1. दृढ़ मनोबल -
वस्तुतः, काम का मुख्य उत्पत्ति-स्थान. मन है। मन में विकार उत्पन्न होने के बाद ही वह विकार वाणी व काया में परिणत होता है। कमजोर मन सामान्य कुनिमित्तों को पाकर भी कामातुर बन जाता है, परन्तु जिसके पास दृढ़ मनोबल है, वह व्यक्ति अशुभ निमित्तों के बीच भी अपनी चित्तवृत्तियों को बाहर नहीं जाने देता है। ब्रह्मचर्य के लिए दृढ़ मनोबल ही विकट प्रसंगों में आत्म-सन्तुलन रख सकता है। कमजोर मन का मानव तो तुरन्त ही प्रवाह की दिशा में बहने लग जाता है।
184 भोगाः न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः । – भर्तृहरि 185 योगशास्त्र - 2/99
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