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आत्मा में ही निर्विकार चैतन्यस्वरुप परमात्मा छिपे हुए हैं, -इस प्रकार की आत्मजाग्रति व चिन्तन से ब्रह्मचर्य-पालन में अपूर्व बल मिलता है। 4. शुभ प्रवृत्ति -
'काम' का औषध काम है। कहावत है - 'Empty mind is Devil's workshop' खाली दिमाग शैतान का घर है। ब्रह्मचर्य-पालन के लिए अपने तन-मन को सतत शुभ प्रवृत्तियों में जोड़े रखने से कामवासना प्रदीप्त नहीं होती, क्योंकि अवकाश मिलते ही तन-मन अनादि के कुसंस्कारों में प्रवृत्त हो जाता है, इसलिए भगवान् महावीर ने श्रमण-श्रमणियों के लिए प्रतिदिन चार प्रहर स्वाध्याय की आज्ञा दी है।188 सतत् शास्त्र-स्वाध्याय में लीन रहने से अब्रह्म के विचार मन को स्पर्श नहीं करते हैं
और मन शुद्ध बनता जाता है। 5. सात्विक आहार -
आहार प्रत्येक प्राणी की एक अपरिहार्यता है। चाहे व्यक्ति गृहस्थ हो या मुनि - दोनों के लिए आहार करना आवश्यक होता है, परंतु आहार की शुद्धता और सात्विकता साधना में अतिआवश्यक है। तामसिक व राजसी, आहार मन को विकृत बनाता है, अतः उन अनर्थों से बचने के लिए सदैव सात्विक खुराक ही लेना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है - ब्रह्मचर्यरत भिक्षु शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत भोजन-पान का सदैव त्याग करे।189 ब्रह्मचारी को घी, दूध आदि रसों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि रस प्रायः उद्दीपक होता है। उद्दीप्त पुरुष के निकट काम-वासनाऐं वैसे ही चली आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष के पास पक्षी चले जाते हैं।190
188 उत्तराध्ययनसूत्र – 26/18 189 वही - 16/7 190 रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकारा नराणं
दित्तं च कामा समभिद्दवंति दुभं जहा साऊफलं व पक्खी।। - उत्तराध्ययन - 32/8
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