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6. रात्रि भोजन का त्याग -
ब्रह्मचर्य-व्रत की साधना के लिए ब्रह्मचारी को रात्रि में भोजन नहीं लेना चाहिए। यदि शक्य हो, तो दिन में एक बार ही भोजन लेना चाहिए। संध्या के भोजन व शयन के बीच तीन से चार घंटों का अंतर अवश्य होना चाहिए, चूंकि असमय किया गया आहार अनुचित विकृति पैदा करता है, अतः ब्रह्मचारी साधक को भावनाशुद्धि के लिए रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए और कम खाना चाहिए, ताकि भोजन सुचारू रूप से पच सके। कम खाना गुणकारी होता है।191
7. उचित श्रम -
ब्रह्मचर्य-पालन के लिए शरीर का उचित श्रम जरुरी है। श्रम के अभाव में व्यक्ति में वासना प्रबल हो जाती है, इसलिए श्रमण-जीवन की दैनिक समस्त क्रियाओं को योग्य आसन, मुद्रा, काउस्सग (कायोत्सर्ग) आदि के द्वारा किया जाता है, इसलिए आवश्यक श्रम स्वतः मिल जाता है। जैनदर्शन के प्रत्एक अनुष्ठान के साथ भिन्न-भिन्न आसन, मुद्रा का योग भी जुड़ा हुआ है। पाद-विहार, गोचरी हेतु परिभ्रमण, स्थण्डिल भूमि-गमन आदि योग और उचित श्रम के ही अंग हैं।
वर्तमान युग में आधुनिक साधनों की अभिवृद्धि के साथ-साथ मनुष्य का शारीरिक श्रम दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है, इसके फलस्वरुप शरीर में विकृति पैदा होती है। ब्रह्मचर्य की साधना उचित प्रकार से करने के लिए साधक द्वारा प्राणायाम, शीर्षासन, सिद्धासन, पद्मासन आदि के द्वारा भी योग्य श्रम किया जा सकता है।
8. नियमितता व मर्यादित निद्रा - .
__शारीरिक श्रम के निवारण के लिए निद्रा की भी आवश्यकता रहती है। निद्रा से क्षय हुई ऊर्जा का पुनः संचय होता है, इसलिए स्वाध्याय, आराधना और मन को
191 गुणकारित्तणाओ ओमं भोत्तव्वं । – निशीथचूर्णि -2951
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