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वस्तुतः, गुणस्थान शब्द जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। श्वेताम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम समवायांग में जीवस्थान के नाम से इसका उल्लेख हुआ है।195 समयसार में गुणस्थान को जीवरस या जीव के परिणाम (मनोदशाएँ) कहा गया है। 196 गोम्मटसार में गुण शब्द को जीव का पर्यायवाची मानकर जीव की अवस्थाओं को ही गुणस्थान कहा गया है।97 यहाँ एक बात स्पष्ट होती है कि आत्मा के आध्यात्मिकविकास की दृष्टि से जिन विभिन्न अवस्थाओं की चर्चा की जाती है, उनके लिए गुणस्थान शब्द परवर्तीकाल में ही रूढ़ हुआ है। उपर्युक्त समग्र चर्चा से स्पष्ट है कि जैनदर्शन में 'गुण' शब्द का प्रयोग संसार, इन्द्रियों के विषय, बन्धन के कारण कर्मों की उदयजन्य अवस्थाएँ, कर्मविशुद्धि के स्थान, आत्मा की विशुद्धि की अवधारणा और आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएँ आदि विभिन्न अर्थों में हुआ है। आचारांगसूत्र में कहा गया है -"जो गुण है, वह संसार है और जो संसार है, वह गुण है।" यहाँ 'गुण' शब्द संसार-परिभ्रमण का वाचक माना गया है। वस्तुतः देखा जाय तो सोलह प्रकार की संज्ञाएं व्यक्ति के जीवन में सदा व्यक्त-अव्यक्त रुप से विद्यमान हैं, अवसर और अभिव्यक्ति के उपस्थित होने पर वे व्यक्त हो जाती हैं।
प्रस्तुत संदर्भ में कामवासना का अर्थ संज्ञा (मूल प्रवृत्ति) {Instict} से है, क्योंकि जब तक जीव में इच्छा, आकांक्षा और कामवासना रहेगी, तब तक उसका आध्यात्मिक-विकास संभव नहीं हो सकता, क्योंकि मूलवृत्तियाँ जीव की आवश्यकता भी है और बंध का कारण भी। आहार-संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन-संज्ञा और परिग्रहसंज्ञा आदि मूल रुप से सांसारिक-जीव के साथ रहने के कारण, वे कर्मबंधनों में जीव को प्रवृत्त करती हैं, जैसे - शरीर को चलाने के लिए आहार आवश्यक माना गया है, इसके अभाव में शरीर अधिक समय तक टिकाया नहीं जा सकता, क्योंकि आहार ग्रहण करने से शरीर को शक्ति एवं स्फूर्ति मिलती है। परन्तु राग और आसक्ति पूर्वक, भक्ष्याभक्ष्य का विवेक नहीं रखकर, मात्र स्वाद के लिए लिया गया
19 कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाण पण्णता ....... | – समवायांग, 14/15, मधुकरमुनि 1% समयसार, गाथा क्र. 55 लेखक- कुन्दाकुन्दाचार्य। 197 गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 8
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