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6. व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास और काम-वासना -
___ व्यक्ति का आध्यात्मिक-विकास जीवन का वह सर्वोच्च शिखर है, जहाँ पहुंचकर आत्मा कर्मबंधन में नहीं बंधती है और अपने शुद्ध स्वरुप में लीन हो जाती है। वहाँ न तो कोई इच्छा है, न कोई आकांक्षा, न कोई शरीर और न कोई लिंग। आध्यात्मिक-विकास जीवन का अन्तिम सोपान है। उस सोपान तक पहुंचते ही व्यक्ति का जीवन सफल और सार्थक हो जाता है। ठीक इसके विपरीत, कामवासना एक ऐसी भावात्मक - इच्छा, आकांक्षा, लालसा और चाहना है, जो व्यक्ति के आध्यात्मिक-विकास को रोकती है और पुनः-पुन: नए कर्मों के बंधन के कारण वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। यहाँ यह चिंतन उपस्थित होता है कि किस प्रकार से जीवात्मा अपना आध्यात्मिक विकास करे ? भारतीय-जैनदर्शन में व्यक्ति की आध्यात्मिक-विशुद्धि के विभिन्न स्तरों का निर्धारण करने के लिए जैनदर्शन में गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत किया है। उसमें व्यक्ति के आध्यात्मिक-विकास का मूल्यांकन इसी अवधारणा के आधार पर होता है।
___ यह एक प्रकार का मापदण्ड है, थर्मामीटर है, जिसके द्वारा आत्मा के विकास की स्थिति को जाना जा सकता है। कहा गया है -
"स्वयं कर्म करोति आत्मा-स्वयं तत्फलमश्नुते,
स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते।" आत्मा स्वयं ही कर्म करता है एवं स्वयं ही उसका फल भोगता है, कर्मबन्धनों के कारण भव-भ्रमण करता है तथा पुरुषार्थ के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है। अपने पुरुषार्थ के द्वारा निर्वाण पाना, परमसुख पाना, मुक्ति–पाना यही मानव-जीवन का परम लक्ष्य है। यह तभी संभव है, जब आत्मा के स्वयं के गुणों का विकास हो। ज्यों-ज्यों आत्मगुण प्रकट होने लगता है, त्यों-त्यों कर्मावरण हटता जाता है। आत्मा के गुणों के विकास की भूमिकाओं की क्रमिक अवस्थाओं को जैन-दर्शन में 'गुणस्थान' कहा गया है।
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