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परिग्रह - संज्ञा के उत्पत्ति के कारण
वस्तुतः यह सत्य है कि इच्छाएं असीम हैं, किन्तु आवश्यकताएं बहुत ही सीमित हैं । "पेट भर सकता है, किन्तु पेटी कभी नहीं भरती ।" एक पेटी भर जाने पर दूसरी पेटी भरने की चिन्ता सताती है । इस प्रकार, अनावश्यकता हेतु धनसम्पत्ति और पदार्थों का संग्रह करना तथा उन वस्तुओं के प्रति ममत्व - बुद्धि और आसक्ति रखना भी परिग्रह - संज्ञा तो है, किन्तु वह उतनी बुरी नहीं है, जितनी मात्रा में स्वामित्व की भावना से जनित संचयवृत्ति । उत्तम भोजन, उत्तम वस्त्र, स्त्री आदि भोगोपभोग. के साधनभूत पदार्थों को देखने से पहले भुक्त पदार्थों का स्मरण करने से परिग्रह में ममत्व - बुद्धि रखने से तथा लोभकर्म की उदीरणा होने पर परिग्रहसंज्ञा होती है। 7 तत्त्वार्थसार में कहा गया है - " अन्तरंग में लोभकषाय की उदीरणा होने से तथा बहिरंग में उपकरणों को देखने से, परिग्रह की ओर उपयोग जाने से और मूर्च्छाभाव होने से परिग्रह की इच्छा होना परिग्रहसंज्ञा है । यह संज्ञा दसवें गुणस्थान तक होती है । तिर्यंचों में परिग्रह - संज्ञा सबसे कम होती है तथा देवों में सबसे अधिक पायी जाती है, क्योंकि सोना और रत्नों में उनकी सदा आसक्ति बनी रहती है। शास्त्रों में, धन-वैभव को नहीं, किन्तु धन-वैभव के प्रति जो मन में आसक्ति या स्वामित्व की भावना लहरा रही है, उसे परिग्रह - संज्ञा कहा गया है । एक भिखारी है, जिसके पास तन ढकने को न पूरे वस्त्र हैं, न खाने को अन्न और न ही रहने के लिए झोपड़ी, परन्तु उसके मन में चलचित्र की तरह एक के बाद दूसरी इच्छाएँ आ रही हैं। उसके मन में पदार्थों के प्रति तीव्र आसक्ति है, इसीलिए कंगाल होते हुए भी करोड़पति की इच्छाएँ उसकी इच्छाओं के सामने कम हैं। वह चाहता है कि पलक
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7 उपयरणदंसणेण य तस्सुवजोगेण मुच्छिदाए य । लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायदे सण्णा ।। - गो.जी. 137
'तत्त्वार्थसार, 2/36 का भावार्थ, पृ. 46
9 'प्रज्ञापनासूत्र
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