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भय बना रहता है, वैसे ही ब्रह्मचारी को स्त्री का भय बना रहता है,158 इसलिए कामवासना को जाग्रत करने वाले स्थानों का साधक पूर्ण रुप से त्याग करने का प्रयास करे।
2. स्त्रीकथा-विरति-भावना -
जिस प्रकार स्त्री-संसक्त आवास साधक के लिए वासनाजन्य है, उसी प्रकार स्त्री-कथा का कथन भी वासनाजन्य है। जैसे स्त्रीदर्शन कामवासनाओं को जाग्रत करता है, उसी तरह स्त्री का कीर्तन और चिन्तन भी। कामवासनाओं के शमन के लिए श्रमण और साधक को अपना समय आगम के चिन्तन–मनन व आत्मचिन्तन में व्यतीत करना चाहिए। वह चर्चा भी करे, तो त्याग-वैराग्य की ही करे। साधक को स्त्रियों सम्बन्धी कामुक चेष्टाओं का, उनके हास-विलास आदि का तथा स्त्री के रुप सौन्दर्य, वेशभूषा आदि का वर्णन करने से बचना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार की कथनी भी मोहजनक होती है। दूसरा कोई इस प्रकार की बातें करता हो, तो उन्हें सुनना भी नहीं चाहिए और न ही ऐसे विषयों का मन में चिन्तन करना चाहिए। सदा अपने अन्तर्मानस को पवित्र विचारों में लगाना चाहिए ताकि संयम में सुदृढ़ता रहे। 3. स्त्री-रूप-निरीक्षण-विरति-भावना -
स्त्रीकथा के साथ ही उसका रूप भी साधक के लिए घातक है। सुन्दरतम रूप प्राप्त होना -यह पुण्य का फल है, परन्तु उसके प्रति आसक्ति बुरी है। जिस प्रकार दीपक के तेज प्रकाश को देखकर पतंगा दीवाना बनकर अपने-आपको उसमें भस्म कर देता है, वैसे ही सुन्दर रूप को देखकर मन भी विचलित हो उठता है। जैसे सूर्य के बिम्ब पर दृष्टि पड़ते ही उसे हटा लिया जाता है, उसे टकटकी लगाकर नहीं देखा जाता है, उसी प्रकार नारी पर दृष्टिपात हो जाए, तो तत्क्षण ही उसे हटा लेना चाहिए।59 दशाश्रुतस्कन्ध में वर्णन है – चेलना के उद्भूत रूप को
158 जहा कुक्कडपोयस्स, निच्चं कुललओ भयं
एवं खु बंभयारिस्स इत्थी विग्गहओ भयं ।। - दशवैकालिक सूत्र 8/54 159 वही - 8/54
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