________________
194
जैन-परम्परा में ही नहीं, अपितु बौद्ध-परम्परा में भी ब्रह्मचर्य का महत्त्व एक स्वर से स्वीकार किया गया है। धम्मपद 128 में कहा है - अगरू और चन्दन की सुगंध तो बहुत अल्प मात्रा में होती है, पर ब्रह्मचर्य (शील) की ऐसी सुगन्ध है, जो देवताओं के दिल को लुभा देती है। वह सुगन्ध इतनी व्यापक होती है कि मानव-लोक में तो क्या, देवलोक में भी व्याप्त हो जाती है। विसुद्धिमग्ग'29 में कहा है – निर्वाण-नगर में प्रवेश करने के लिए ब्रह्मचर्य के समान और कोई द्वार नहीं।
___ बौद्ध-त्रिपिटक-साहित्य के अनुशीलन में यह भी ज्ञात होता है कि वहाँ पर 'ब्रह्मचर्य' तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। दीघनिकाय 130 में ब्रह्मचर्य का प्रयोग बुद्ध द्वारा प्रतिपादित 'धर्म–मार्ग' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दीघनिकाय के पोट्ठपाद में उसका अर्थ 'बौद्ध धर्म में निवास'131 है। जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्य का तीसरा अर्थ 'मैथुन-विरमण 132 है।
आत्मा अनन्तकाल से अपने शुद्ध स्वरूप को विस्मृत कर चुकी है और जो उसका निज स्वभाव नहीं है, उसे वह अपना स्वभाव मान बैठी है। अनन्तकाल से विकार और वासनाएँ आत्मा के साथ हैं, पर वह आत्मा का स्वभाव नहीं है। पानी स्वभाव से शीतल है, अग्नि के संस्पर्श से वह उष्ण हो जाता है, पर उष्णता उसका स्वभाव नहीं है। आग का स्वभाव उष्ण है, मिर्ची का स्वभाव तीखापन है, मिश्री का स्वभाव मधुरता है, वैसे ही आत्मा का स्वभाव विकाररहित अवस्था या स्वभावदशा है। विभाव कर्मों का स्वभाव है, इसलिए वह औपाधिक-भाव है। उस विभाव से हटकर जिन-स्वभाव में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है।
128 चंदनं तगरं वापि उप्पलं अथ वस्सिकी
एतेसं गंधजातान सीलगंधो अनुत्तरो।। - धम्मपद 4-12 129 सग्गारोहन सोपानं अंअं सीलसमं कुतो
द्वारं वा पन निव्वान-नगरस्स पवेसने।। - विसुद्धिमग्ग, परि-1 130 दीघनिकाय, महापरिनिव्वाणसुत्त, पृ. 131 131 दीघनिकाय, पोट्ठपाद, पृ. 75 132 विसुद्धिमग्ग, प्रथम भाग, पृ. 195
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org