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वीर्यरक्षण अर्थ तो प्रायः प्रसिद्ध है, किन्तु इसके आगे के दो अर्थ भी मननीय हैं। आत्मस्वरुप में लीन होना और सतत ज्ञानार्जन करते रहना ये ब्रह्मचर्य की विकारों साधना को सम्पूर्णता प्रदान करते हैं। इस प्रकार, ब्रह्मचर्य का अर्थ हुआ का उपशमन कर ज्ञानपूर्वक आत्मा में रमण करना ।
वीर्यरक्षण -
महर्षि पतंजलि ने 'योगदर्शन' में ब्रह्मचर्य की परिभाषा करते हुए लिखा है 'ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठाया वीर्य लाभः ब्रह्मचर्य की पूर्ण साधना कर लेने पर अपूर्व मानसिक-शक्ति और शरीर बल प्राप्त होता है। 'योगदर्शन' के भाष्यकार और टीकाकारों ने वीर्य शब्द का अर्थ 'शक्ति और बल' किया है। जब तक व्यक्ति अपने वीर्य और शक्ति का रक्षण नहीं करता, तब तक शरीर ओजस्वी और तेजस्वी नहीं बनता है। शरीर - विज्ञान की दृष्टि से शारीरिक शक्ति का केन्द्र वीर्य और शुक्र हैं । शरीर के इस महत्त्वपूर्ण अंश को अधोमुखी होकर बहने से ऊर्ध्वमुखी बनाना ब्रह्मचर्य है । वीर्य के विनाश से जीवन का सर्वतोमुखी पतन होता है ।
वीर्य - निर्माण
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13 पातंजलि योगदर्शन
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114 1 ) रसात् रक्तं ततो मांस, मांसात् भेदो प्रजायते ।
भेदसोऽस्थि ततो मज्जा मज्जायाः शुक्रसंभव ।।
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2 ) समयसार, गाथा - 179
भारतीय आयुर्वेद - शास्त्र में तथा पाश्चात्य - चिन्तकों ने वीर्य और उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में गहराई से अनुचिन्तन किया है । वैद्यक - शास्त्र के आद्य प्रणेता आचार्य चरक ने अपने ग्रन्थ 'चरक संहिता में लिखा है कि हम जो भोजन करते हैं, पाचन-क्रिया के क्रम में उसका सर्वप्रथम रस बनता है । रस से रक्त, फिर मांस, उसके बाद मेद, तत्पश्चात अस्थियाँ, अस्थियों से मज्जा मज्जा से अन्त में शुक्र अर्थात् वीर्य बनता है । 114
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चरकसंहिता, अ. 3 श्लोक 6
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