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प्रश्न यह है कि भय से मुक्त होकर अभय की साधना किस प्रकार से करें ? अधिक-से-अधिक अभय की भाव-धारा को कैसे प्रवाहित कर सकें ? अधिक-से-अधिक अभय को कैसे अनुभूत कर सकें ? भय और अभय की साधना में यह स्पष्ट है कि भय हेय (त्याज्य) है और अभय उपादेय (ग्राह्य)। हमें भय की भाव-धारा को त्यागना है और अभय की भाव-धारा को विकसित करना है।
जैन-शास्त्रों में दो शब्द मिलते हैं - भय और उसका विलोम अभय। 'अभय' शब्द तीर्थंकर परमात्मा के लिए शक्रस्तव स्तोत्र में प्रयोग किया गया है। उन्हें अभय दयाणम् – अर्थात् अभय-प्रदाता कहा गया है। मगर चिन्तन का विषय यह है कि भय को संज्ञा कहा गया है, अभय को नहीं। क्योंकि अभय तो आत्म-चेतना है, अप्रमाद की दशा है। जैनदर्शन में आत्मा की अवस्था को दो रूपों में व्यक्त किया गया है - स्वभावगत और विभावगत। अभय स्वभावगत है, अतः उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - अभय को चाहने वालों दूसरों को अभय प्रदान करो, क्योंकि अभय की भाव-धारा अभय से ही बहेगी।43
स्वभाव आत्मा का अपना निज धर्म है, जबकि विभाव उसकी भ्रान्त-दशा या भ्रमणा है। वैदिक-दर्शन में इसे ही माया शब्द से संबोधित किया गया है। इस भ्रमणा को, विभाव की गहन मनःस्थिति को ही चार संज्ञाओं के रूप में दर्शाया गया है, जो शरीर और इन्द्रियों के रहते ही संभव है, जैसे - आहारसंज्ञा शरीर-धर्म होने से विभावदशा है, क्योंकि आत्मा का स्वभाव निराहार है। इसी प्रकार, मैथुन और परिग्रह भी शरीर और इन्द्रियों से ही सम्बन्धित हैं। जोकि शरीर की मांग या मनःस्थिति को परिलक्षित करते हैं। उसी प्रकार, भय तब तक ही संभव है, जब तक कि आत्मा के पास शरीर है, जब तक शरीर के प्रति लिप्तता या ममत्व-वृत्ति है, क्योंकि छिनने का, खोने का भय तब ही होता है, जब 'पर' के प्रति ममत्व होता है। जब लिप्तता ही नहीं रहती, तो भय कैसा ? अतः भय एक मनोभाव है, भ्रान्ति है।
4 अभओपत्थिवा ! तुब्भं अभयदाया भवाहि य।
अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिंसाए पसज्जखि।। - उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 18, गा. 11
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