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जैनदर्शन की दृष्टि से जिस तरह से आहार, भय, परिग्रह आदि संज्ञाएं सभी जीवों में पाई जाती हैं, वैसे मैथुन-संज्ञा भी है। कामवासना का सम्बन्ध चारित्रमोहनीय-कर्म से है, जिसका सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादिकाल से चला आ रहा है। अनादिकाल से सम्बन्ध होने के कारण भी यह वृत्ति अच्छी हो, सम्यक् हो, -यह बात नहीं है क्योंकि अनादिवृत्ति को खुली छोड़ने में समझदारी नहीं है, जैसेभूख लग गई तो इसका अर्थ यह नहीं कि जो भी मन में आया, वही उदरस्थ कर लिया जाय । भूख की तरह काम-भोग भी सहज है, पर इस पर नियंत्रण नहीं होगा, तो पशु और मानव में कोई अन्तर ही नहीं रह जाएगा। क्योंकि सच्चे साधक की दृष्टि से कामभोग रोग के समान है, अतः काम पर धर्म का नियन्त्रण होना अतिआवश्यक है। भविष्य में कष्ट भोगना न पड़े, इसलिए अभी से अपने को विषय वासना से दूर रखकर अनुशासित हो जाओ।
व्यावहारिक जीवन में हम देखते हैं कि मैथुन-संज्ञा सभी जीवों में पाई जाती है। यहाँ तक कि एकेन्द्रिय वनस्पति-जगत में भी यह संज्ञा स्पष्ट दिखाई देती है, जैसे- कुरुबक, अशोक, तिलक आदि के पेड़ स्त्री का आलिंगन, पाद-प्रहार, कटाक्ष, निक्षेप आदि से फलते-फूलते हैं। गिलखी, तोरु आदि शाक की उत्पत्ति भी तितली और भंवरों के द्वारा नर एवं मादा पुष्पों के परागकुंजों के आदान-प्रदान से होती है।
चार गतियों में से स्त्री-जाति तीन ही गतियों में होती है- देव, मनुष्य और तिर्यंच में। नरक-गति में स्त्री-जाति नहीं होती और दुःख-वेदना अधिक होने के कारण वहाँ मैथुन-संज्ञा की अल्पता होती है।
मैथुन तीन प्रकार के कहे गए हैं- (1) दिव्य, (2) मानुष्य (3) तिर्यक्योनिक। तीन मैथुन को प्राप्त करते हैं-(1) देव (2) मनुष्य (3)तिर्यंच
" अदुक्खु कामाइ रोगवं - सूत्रकृतांगसूत्र 1/2/3/2 12 मा पच्छ असाधुता भवे
अच्चेही अणुसास अप्पगं - वही 1/2/3/7 " प्रवचनसारोद्धार, संज्ञाद्वार 145, साध्वी हेमप्रभा श्रीजी, पृ. 80
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