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कर्म करने को भी उद्यत हो जाते हैं । क्रूर कर्म करते हुए वे सुख के बजाय दुःख का सृजन करते हैं और इस प्रकार 'विपर्यास' को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार सुख का अर्थी दुःख को प्राप्त होता है।" सुखवाद की यही विडम्बना है । सुख की तलाश अपने-आप में दुःखद है। इसी को पाश्चात्य - नीतिशास्त्र में 'पैराडॉक्स ऑव इेडोनिज्म' कहा गया है। इसी बात को उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि सभी कामभोग अन्ततः दुःखद ही होते हैं, " क्योंकि संसार के विषय-भोग क्षण भर के लिए सुखदायी प्रतीत होते हैं, किन्तु चिरकाल तक दुःखदायी होते हैं। 67 अंदर के विषय - विकार ही वस्तुतः बंधन के हेतु हैं । " जो भोगासक्त है वह कर्मों से लिप्त होता है । भोगासक्त संसार में परिभ्रमण करता है । भोगों से अनासक्त ही संसार से मुक्त होता है । " मिट्टी के सूखे गोले के समान विरक्त साधक कहीं भी विषयों से चिपकता नहीं है, अर्थात् आसक्त नहीं होता है। 70
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मनः काम्
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कामवासना को तीन प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है मनकाम, वचनकाम, कायिककाम । वस्तुतः, तो तीनों ही काम जैनसाधना-पद्यति में वर्जनीय हैं, परन्तु मनकाम को विशेष वर्जनीय बताया गया है। इसके लिए एक शब्द प्रयुक्त हुआ है- अनंग-क्रीड़ा। अनंग का अर्थ होता है – अंग-हीन । शैव लोगों ने तो काम के प्रतीक देव को मनोज और अनंग नामों से ही उल्लेखित किया है। जैनशास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि अगर आप मानसिक रूप से, अर्थात् मन के द्वारा समागम करते हैं तो वह भी कामाचार है, मैथुन है । वासनाप्रधान - चित्र, चलचित्र आदि देखना
6S आचारांगसूत्र - 5, 6 तथा 2 / 151
. 66 सव्वे कामा दुहावहा ।
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7 खणमित्तसुक्खा बहुकाल दुक्खा ।
अज्झत्थ हेउं निययस्स बंधो।
उत्तराध्ययनसूत्र -13/16
वही - 14/13
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वही - 14/19
69 वही - 25/41
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" विरता उ न लग्गन्ति, जहा सुक्को उ गोलओ ।
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उत्तराध्ययनसूत्र 25/43
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