________________
167
कामवासना के प्रकार -
भारतीय-मनोविज्ञान ने 'काम' को जीवन का आवश्यक अंग माना है। जैनदर्शन की दृष्टि से भी कामवासना सभी प्राणियों में होती है। कामवासना का सम्बन्ध मोहनीयकर्म से है, जिसका सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादिकाल से है। यद्यपि आहार ग्रहण करना, मैथुन-सेवन करना आत्मा का धर्म नहीं है, परन्तु शरीर धारण करने से ये प्रवृत्तियाँ बनी रहती हैं। मानव-भव में भी न्यूनाधिक अंश में चारों संज्ञाए रहती है। परन्तु मैथुन-संज्ञा या कामवासना के संस्कार विशेष रुप से पाए जाते है।
ईंधन में ज्वलन-गुण रहा हुआ है, लेकिन जब तक उसे चिनगारी नहीं मिलती है, तब तक ईंधन में रहा हुआ ज्वलन्त गुण प्रकट नहीं होता है। इसी प्रकार, आत्मा में रहे हुए अच्छे-बुरे संस्कारों के जागरण के लिए भी शुभाशुभ निमित्त की आवश्यकता रहती है। मनुष्य के भीतर जो ‘कामवासना' रही हुई है, वह कामवासना भी निमित्त पाकर ही जाग्रत होती है। युवावस्था, एकांत, अंधकार, कुसंग, दृश्य, अश्लील साहित्य तथा स्त्री-संग आदि ऐसे प्रबल निमित्त हैं जो प्राणी के भीतर रहीं हुई कामवासना को जाग्रत कर देते हैं।
प्रवचन-सारोद्धार' में कामवासना के चौबीस प्रकार बताए गए हैं।
मुख्य रुप से दो भेद हैं -1. संप्राप्त, 2. असंप्राप्त या संयोगजन्य या विप्रयोगकाम। संयोग काम (संभोगजन्य कामक्रीड़ा) कामियों के परस्पर संयोग से उत्पन्न सुख है, जो चौदह प्रकार का है। विप्रयोग काम वे कामुक स्थितियाँ हैं, जिनमें संभोग नहीं होता, किन्तु वासना को संतृप्त करने का प्रयास होता है। इसके भी दस भेद हैं।
74 कामो चउवीसविहो संपतो खलु तहा असंपत्तो। चउदसहा संपतो दसहा पुण हो असंपत्तो।। तत्थ असंपत्तेऽत्या चिंता तह सद्ध संभरण मेव। विक्कवय लज्जनासो पमाय उम्माय तब्भावो।। मरण च होइ दसमो संपत्तंपि य समासओ वोच्छं। दिट्ठीए संपाओ दिट्ठीसेवा या संभासो।। हसिय ललिओवगहिय दंत नहनिवास चुंबण चेव। आलिगंण मादाणं कर सेवणऽणंणकीडा य।। - प्रवचनसारोद्धार, साध्वी हेमप्रभा श्रीजी, गाथा 1062-1065
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org