________________
180
जैनदर्शन कामवृत्ति को जगाने में मूल कारण वेदमोहनीय-कर्म को मानता है। फ्रायड भी जन्मजात शारीरिक-उत्तेजना को ही इसका मूल कारण मानता है। जैनदर्शन में वेदमोहनीय-कर्म, जो आन्तरिक है, वासना को जगाने के लिए उपादान-कारण है, परन्तु बाह्य-कारण भी निमित्त कारण होते हैं और कुछ शारीरिक-कारण, नैमित्तिक-वातावरण अशुभ संस्कार भी कारणभूत होते हैं, जो निमित्त मिलते ही प्रबल हो उठते हैं। संभूति मुनि, रथनेमि100 आदि के पौराणिकउदाहरण इस बात को स्पष्ट करते हैं।
जैनदर्शन और फ्रायड यह मानता है कि वासना को निरसन के द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है। जिस प्रकार एक सुन्दर मकान के निर्माण के साथ-साथ गंदगी को निकालने के लिए नालियों की उचित व्यवस्था की जाती है, क्योंकि गंदगी के कारण मकान का और आसपास का वातावरण दूषित न हो, उसी प्रकार जैनदर्शन भी कामवासना के निरसन के लिए 'विवाह-संस्कार' और 'स्वदार-संतोषव्रत' की व्यवस्था का सिद्धान्त प्रतिपादित करता है, जिससे कामवासना का निरसन भी हो जाए और समाज की व्यवस्था भी सुचारू रूप से चलती रहे। जैनदर्शन जहाँ इच्छाओं एवं वासनाओं को दमित करना चाहता है, वहीं फ्रायड इसे बाह्यरुप से निरसन की बात करता है।
फ्रायड के अनुसार, मानस के तीन प्रकार हैं - चेतन, अर्द्धचेतन (अवचेतन) और अचेतन। अचेतन मन दमित इच्छाओं का संग्रहालय है, जो स्वप्न और मनोविकृतियों को जन्म देता है। रागद्वेष-रूप कषाय की पृष्ठभूमि में वे मनोविकृतियाँ पनपती रहती हैं। फ्रायड ने जिसे लिबिडो नाम दिया था, जैनदर्शन उसके लिए ही 'कामना' शब्द का प्रयोग कर उसे संसार का मूल कारण मानता है। यह कषाय मोहनीय-कर्म का बीजतत्त्व है। इस दृष्टि से दोनों में समानता दिखाई देती है।
9 उत्तराध्ययन चूर्णि 13, पृ. 314 100 दशवैकालिकसूत्र - 2/11
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org