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न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक - मर्यादानुकूल काम का भी जैन- विचारणा में समुचित स्थान स्वीकृत है | 39
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चार पुरुषार्थों में सांसारिक दृष्टि से काम - पुरुषार्थ का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। काम वर्त्तमान समाज-व्यवस्था के लिए आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। इसकी उपयोगिता है, इसमें भी कोई संदेह नहीं है, क्योंकि संसार में जो भी सृजन - कार्य हो रहा है, वह 'काम' की ऊर्जा से ही हो रहा है। " काम ऊर्जा ( Sex Energy ) मनुष्य की एक ऐसी ऊर्जा है, जो किसी दूसरे के प्रति गतिमान हो, तो यौन बन जाती है और यही स्वयं के प्रति गतिमान हो, तो योग बन जाती है। 4
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काम का स्वरुप
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जैनदर्शन में भी मनुष्य - जीवन में काम के महत्त्व को कभी भी पूर्णतः अनदेखा नहीं किया गया है। आगमिक - साहित्य स्पष्टतः कहता है - "यह पुरुष निश्चित रुप से कामकामी है। 41 मनुष्य की कामनाएं विशाल हैं, अनन्त हैं, इतना ही नहीं, वे दुराग्रही और हठी भी हैं। - "गुरु से कामा" उनका अतिक्रमण करना सहज नहीं है, इसीलिए कामना को भारी (गुरु) कहा गया है। कामना के बिना कोई क्रिया प्रारम्भ नहीं होती है, परन्तु किसी भी कामना की पूर्ण सन्तुष्टि हो नहीं पाती, क्योंकि यह पुरुष अनेक चित्त ( अनेक कामनाओं ) वाला है। एक कामना सन्तुष्ट हो नहीं पाती कि मन में दूसरी कामना का जन्म हो जाता है और व्यक्ति दूसरे विषयों की ओर आकृष्ट हो जाता है । कोई अगर यह सोचता है कि शयन से नींद पर, भोजन से भूख पर अथवा लाभ से कामनाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, तो निश्चित
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मूल्य और मूल्यबोध की सापेक्षता का सिद्धान्त- डॉ. सागरमल जैन, श्रमण, जनवरी 1992, पृ. 10-11 40 महावीरवाणी, ओशो - 1, पृ. 405
41 'कामकामी खलु पुरिसे' - आचारांगसूत्र 1/123
42 वही - 5 / 2, पृ. 176
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