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इसीलिए जैनदर्शन में संज्ञा विभावदशा है, मगर अभय आत्मा का निजधर्म है, स्वभावदशा है, वह संज्ञा (वासना) नहीं है। .
प्रभु महावीर ने साधकों को भय से अभय की ओर जाने के लिए अहिंसा महाव्रत की संपदा प्रदान की है। गृहस्थ-साधकों के लिए वे ही अणुव्रत-रूप हैं, तथा अनगार-साधकों के लिए महावृत रूप। ये पाँच व्रत क्रमशः इस प्रकार हैं -
प्रथम, प्राणातिपात-विरमणव्रत द्वितीय, मृषावाद-विरमणव्रत तृतीय, अदत्तादान-विरमणव्रत चतुर्थ, मैथुन-विरमणव्रत पंचम, परिग्रह-विरमणव्रत
ये पाँचों व्रत साधन हैं, साध्य नहीं। साध्य तो अभय हो जाना है, भयरहित हो जाना है, क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार, सभी प्राणियों के भीतर निरन्तर चली आ रही भय-वृत्ति से मुक्त हुए बिना कोई मुक्त अर्थात् अभय को प्राप्त नहीं हो सकता। मुक्त होने के लिए हमारी एकमात्र कमजोरी, जो जीतने लायक है, वह है - भय। महान् साहित्यकार आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित ललितविस्तरा ग्रंथ में 'नमो जिणाणं जियभयाणं' की व्याख्या में स्पष्ट कहा गया है कि जिन्होंने भय को जीत लिया है, वे ही जिन होते हैं, अन्य कोई नहीं। अभय की साधना सप्त भयों को जीतने की साधना है। जिन्होंने भय को जीत लिया वे अभय हो गए। अभय को प्राप्त करने के लिए हिंसा, चौर्य, अदत्त, मैथुन, परिग्रह - सभी पर विजय प्राप्त करने के प्रयास करना होगा।
1. प्राणातिपात-विरमण-व्रत -
जीव-हिंसा का विचार भय के कारण ही उत्पन्न होता है। जितनी भी हिंसा है, आक्रामक-वृत्ति है, वह आत्म–सुरक्षा के भय से उत्पन्न हुई प्रतिक्रिया-रूप है। यदि जीव में स्वयं के बचाव की भावना न हो तो वह दूसरे जीवों पर आक्रमण क्यों
44 नमो जिनेभ्य जितभयेभ्य - ललितविस्तरा, पृ. 228
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