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कि कल ये बालक बड़ा होकर मेरी सेवा करेगा, मेरे वंश को बनाए रखेगा। मेरा नाम यश बढ़ायेगा। वस्तुओं के संग्रह की सारी प्रतिस्पर्धा अस्मिता की भावना से ही होती है। संग्रह की भावना भय से ही पैदा होती है। व्यक्ति बाहर गया और ध्यान आया कि कमरे को तो ताला ही नहीं लगाया है, या आलमारी खुली रह गयी है तो वह बीच रास्ते से ही लौट आता है। कहीं कोई चोरी न हो जाए, कोई कुछ न ले जाए। यहाँ पर के ममत्व के कारण ही वह भयभीत हो जाता है, क्योंकि उसकी ममत्ववृत्ति संग्रहित पदार्थों में हैं। पर में स्व के आरोपण से आदमी रात और दिन भय से आक्रान्त रहता है। उसे निरन्तर यह भय सताता रहता है कि कहीं मुनीम, पार्टनर, नौकर, कर्मचारी, भाई कोई धोखा न दे दे। मेरी सम्पत्ति को न लेले। यह परिग्रह की वृत्ति उसे अभय बनाने में बाधक बनती हैं, क्योंकि जब तक वह ममत्वबुद्धिजन्य मिथ्या भय का परित्याग नहीं करता है, वह निर्भय नहीं हो सकता है। अभय की प्राप्ति के लिए पर में स्व का, अर्थात् अपनेपन का त्याग आवश्यक है। इसी से अभय का विकास होगा।
इस प्रकार वह भय, जो मूलतः एक मनोकल्पना और ममत्वजन्य है, को जीत कर व्यक्ति अभय बन सकता है। पाँचों ही महाव्रतों के मूल में भयसंज्ञा से मुक्ति का प्रयास ही है। वस्तुतः, जो अभय को उपलब्ध है, वही नाथ है। जो भयभीत है, वही गुलाम है, दास है। अर्हत एवं सिद्ध परमात्मा स्वयं अभय को उपलब्ध हैं और हमें भी अभय बनने की प्रेरणा दे रहे हैं, इसीलिए सूत्रकृतांग में कहा गया है कि दानों में सर्वश्रेष्ठ दान अभयदान है। (दाणाण सेट्ठ अभयपयाण) यह अभयदान उनकी आत्मज्ञानमयी वाणी द्वारा हमें प्राप्त होता है। परमात्मा की वाणी ही 'अभयदानी' है। वस्तुतः, पंच महाव्रत के माध्यम से हम अभय को प्राप्त कर सकते हैं, साथ ही -
1. अनुप्रेक्षा 2. प्रेक्षा 3. मंत्रों का जाप 4. चारित्र के विकास और
48 "जे ममाइयमई जहाइ, से जहाइ ममाइयं" - आचारांगसूत्र 1/2/6
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