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बचने के लिए सम्पत्ति एकत्रित करता है । भविष्य की असुरक्षा का भय व्यक्ति की
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संचय या परिग्रह - वृत्ति को बढ़ावा देता है । कल बीमार न हो जाऊँ, कल मर न जाऊँ, इसलिए आदमी आज ही सुरक्षा के साधनों को ढूंढता है और उनका संचय करता है । वह इन सुरक्षात्मक उपायों से कल्पित आश्वासन खड़े करता है, जबकि अज्ञानवश यह नहीं जान पाता कि बाह्य-तत्त्व इस जीव को कहीं भी शरणभूत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि हर भौतिक साधन अनित्य एवं असुरक्षित है ।
इन भूत एवं भविष्यकालीन भयों का वर्गीकरण करते हुए पूर्वाचार्यों ने सप्तविध भय प्रतिपादित किए हैं। प्राचीन जैनग्रंथ 'मूलाचार' 28 में भय के सात प्रकार बताये हैं। जो निम्न हैं
1. इहलोक -भय, 2. परलोक-भय, 3. आदान -भय, 4. अकस्मात् - भय, 5. आजीविका-भय, 6. अपयश -भय, और 7. मरणभय ।
1. इहलोक -भय
इहलोक, अर्थात् यह लोक (Present World ) । जहाँ हम रह रहे हैं, वहाँ अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भयभीत होना, अपनी ही जाति के प्राणियों से डरना इहलोक - भय है । राजा, शत्रु, चोर आदि अन्य मनुष्यों से होने वाला भय इहलोक - भय कहलाता है ।
इहलोक - भय से आक्रान्त मनुष्य क्रोध करता है। यह क्रोध भी विषम एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में स्वयं को बचाने का, स्वयं को स्थापित करने का तरीका 28 इहपरलोयत्ताएं अणुत्तिमरणं च वेयणाकस्सि भया मूलाचार, गा. 53
29 (1) समयसार / आत्मख्याति, गाथा - 228
(2) पंचाध्यायी / उत्तरार्द्ध श्लोक -504-505
( 6 )
( 7 )
दर्शनपाहुड-2, पं. जयचन्द्र
राजवार्त्तिक, हिन्दी अध्याय
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6/24/517
इहपरलोयाऽऽयाणा - मकम्ह आजीव मरण मसिलोए ।
सत्त भट्ठाणाई इमाइं सिद्धंतभणियाइं । । - प्रवचनसारोद्धार, द्वार 234, गा. 1320 सत्त य भयठाणाई
पाक्षिकसूत्र, गा. 33
सात महाभय टालतो सप्तम जिनवर देव - योगीराज आनंदघनजी, श्री सुपार्श्वनाथ स्तवन, गा. 2
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