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सर्वविरतियों के साथ ही रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए । इस व्रत का पालन भी महाव्रतों की तरह ही दृढ़ता से किया जाता है। रात्रिभोजन - त्याग को दशवैकालिक की अगस्त्यसिंह चूर्णि 9 में मूलगुणों की रक्षा का हेतु बताया गया है, इसलिए रात्रिभोजन-विरमण को मूलगुणों के साथ ही प्रतिपादित किया गया है। विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है कि रात्रिभोजन नहीं करने से अहिंसा - महाव्रत का संरक्षण होता है। 60
जैन- न - परम्परा में तो रात्रिभोजन - वर्जन का स्पष्ट आदेश है । प्राचीन एवं अर्वाचीन जैन-ग्रन्थों के साथ ही वैदिक - परम्परा के ग्रंथों में भी रात्रिभोजन का निषेध किया गया है ।
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रात्रिभोजन - त्याग अहिंसा की कसौटी है । इस कारण रात्रिभोजन - निषेध की बात किसी न किसी रूप में विभिन्न धर्म ग्रन्थों में मिलती है। महाभारत 1 में स्पष्ट उल्लेख है
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मद्यमांसाशनं रात्रिभोजनं कन्दभक्षणं
ये कुर्वीन्ति वृथा तेषां तीर्थयात्रा जतस्तपः ।।
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अर्थात्; रात्रिभोजन, मद्यपान, मांसाहार एवं कन्दभक्षण में जो हिंसा होती है, इसके कारण जप, तप और तीर्थयात्रा आदि सब व्यर्थ हो जाते हैं । उसको नरक का प्रथम द्वार बताया गया है। 2 मार्कण्डेय ऋषि ने रात्रिभोजन को मांसाहार के समान कहा है। सूर्यास्त के बाद अन्न, मांस और जल रक्त जैसा हो जाता है। जो सूर्यास्त से पूर्व भोजन कर लेता है वह महान् पुण्य का उपार्जन करता है। एक बार
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59 किं रातीभोयणं मूलगुणः उत्तरगुण ? उत्तरगुण एवायं ।
तद्यपि सव्वमूलगुणरक्खा हेतुत्ति मूलगुण सम्भूतं पठिज्जति ।। अगस्त्यचूर्णि, पृ. 65
60 विशेषावश्यकभाष्य (गा. 1247 वृति)
" महाभारत (ऋशीश्वर भारत )
62 चत्वारो नरकद्वारा, प्रथमं रात्रिभोजनम्
परस्त्रीगमनं चैव सन्धानान्तकायिके । । - रात्रिभोजन महापाप, पृ. 25
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63 अस्तंगते दिवानाथे, आपो रुधिरमुच्यते ।
अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कण्डेय महार्षिणा । - मार्कण्डपुराण
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