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अध्याय-3 भय-संज्ञा
भय-संज्ञा का स्वरूप एवं लक्षण
स्थानांगसूत्र' में एक प्रसंग आता है कि एकदा प्रभु महावीर ने अपने शिष्य-शिष्याओं से प्रश्न किया -"किं भया पाणा समणाउसो' अर्थात् हे आयुष्यमान श्रमणों ! प्राणियों को किससे भय है ? उत्तर देते हुए प्रभु महावीर स्वयं कहते हैं कि -“दुक्खं भया" प्राणियों को दुःख से भय है। प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुःख से डरता है -यह सामान्य मनोविज्ञान है। निगोद से लेकर मनुष्य एवं देवता तक, हर प्राणी में 'भय-संज्ञा' विद्यमान है। जैव-वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिको सभी ने यह तथ्य एकमत से स्वीकार किया है कि प्राणी भय से सुरक्षा चाहता है। भय से बचाव के लिए ही सारी व्यवस्थाएँ जुटाता है। भय के कारण ही वह अस्त्र-शस्त्रों का वैज्ञानिक विकास कर पाता है। जब बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है तो वह छोटी मछली भी अपनी सुरक्षा का भाव रखती है। इस प्रकार, स्वयं की सुरक्षा के लिए प्रत्येक जीव कुछ-न-कुछ प्रयास करता है और यह प्रयास ही उस जीव का भविष्य बनता है और उसके भावी संसार का निर्माण करता है। प्रत्येक जीव के भाव भिन्न-भिन्न होते हुए भी उनके मूल में एक ही तथ्य है कि वे भय से छुटकारा चाहते हैं और अभय की अवस्था को प्राप्त होना चाहते हैं।
उत्तराध्ययनसूत्र में महर्षि गर्दभाली कहते हैं -"अभय को चाहते हो तो अभयदाता बनो।
' स्थानांगसूत्र – 3/2 सव्वे पाणा पिआउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला। -आचारांगसूत्र -1/2/3 अभओ पत्थिवा ! तुम अभयदाया भवाहि य अणिच्चे जीवतोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि ? - उत्तराध्ययनसूत्र 18/11
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