________________
मन करता है, बल्कि इस सम्बन्ध में उदर से परामर्श लेना आवश्यक है। जिस समय उदर खाने की अनुमति न दे, उस समय अमृत को भी विष के समान समझकर त्याग देना चाहिए। भावप्रकाश नामक वैद्यकग्रंथ में कहा गया है -"आमाशय के दो भाग भोजन से और एक भाग पानी से भरना चाहिए तथा चौथा भाग वायु-संचरण के लिए खाली छोड़ देना चाहिए। 31
जिस प्रकार भूख से अधिक खाना हानि कारक है, उसी प्रकार बहुत कम खाना भी ठीक नहीं है। आवश्यकता से कम भोजन करने पर दुर्बलता, ग्लानि, अनिद्रा-रोग और वायु के रोग उत्पन्न होते हैं। भोजन की मात्रा के लिए कोई तौल नियत करना उचित नहीं है, आहार की मात्रा का निर्धारण भूख के आधार पर या दैहिक आवश्यकता के आधार पर करना ही ठीक है, अतः जितना भोजन सुख से पच सके, उतना ही खाना चाहिए। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि मुनि को मात्रज्ञ होना चाहिए, अर्थात् उसे भोजन की मात्रा का ज्ञान होना चाहिए।
आहार का स्वाद एवं शरीर संरक्षण -
जीवन-यात्रा के लिए आहार आवश्यक है। यदि मानव आहार को ग्रहण न करे, तो वह अधिक समय तक जीवन जी नहीं सकता है। अहिंसा की साधना के लिए; सत्य, क्षमा आदि व्रतों के पालन हेतु मानव का जीवित रहना आवश्यक है और जीवित रहने के लिए आहार आवश्यक है, परन्तु आहार कैसा, कब, कितना और किसलिए करना चाहिए, यह विवेक रखना भी आवश्यक है। मुख्यतः, आहार के संबंध में तीन प्रकार की मान्यताएं देखी गई हैं -
1. आहार के लिए जीवन। 2. जीवन जीने के लिए या स्वास्थ्य के लिए आहार । 3. धर्म-साधना के लिए आहार |
" कुक्षेभार्गद्धयं भोजोस्तृतीये वारि पूरयेत्।
वायो संचारणार्थाय चतुर्थमवशेषयेत् ।। - भावप्रकाश 32 लद्धे आहारे अणगारे मायं जाणेज्जा, से जहेयं भगवया पवेइयं – आचारांगसूत्र 1/5/113
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org