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आहार के विभिन्न प्रकार -
आत्मा और शरीर का समन्वय ही जीवन है। जिस प्रकार धर्म-साधना का आधार शरीर है, वैसे ही शरीर का आधार आहार है। शरीर जब सुरक्षित, स्वस्थ व क्रियाशील रहता है, तभी धर्म की आराधना भली प्रकार से की जा सकती है। जैसे
खेती के लिए हल एवं बैल की जरूरत होती है, रथ को चलाने के लिए घोड़ों की जरूरत होती है और कार को चलाने के लिए पेट्रोल की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार शरीररूपी गाड़ी को चलाने के लिए आहाररूपी ईंधन अति आवश्यक है।
आहार की उपयोगिता बताते हुए आयुर्वेद-ग्रन्थों में अन्न को ही 'प्राण' कहा गया है। 'अन्नं वै प्राणाः' । उपनिषद् में तो यहाँ तक कहा गया है –“अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्" अर्थात् अन्न ही ब्रह्म है, अन्न ही परमात्मा है।
जैनदर्शन के अनुसार, विग्रहगति के अतिरिक्त संसारस्थ सभी जीव आहारयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करते रहते हैं।" आहार से ही औदारिक, वैक्रिय आदि तीन शरीर, पर्याप्तियाँ, इन्द्रिय आदि का निर्माण कार्य सम्पन्न होता है। विग्रह-गति के अतिरिक्त केवलीसमुद्घात, शैलेशी-अवस्था और सिद्धावस्था में जीवन आहार ग्रहण नहीं करता। इस सन्दर्भ में दिगम्बर-परम्परा का कहना है कि केवली (वीतराग) कवलाहार नहीं करता है, किन्तु उसका भी रोमाहार-ओजाहार आदि तो चलता रहता है। जीव जब तक जीता है, संसार में परिभ्रमण करता है, आहार ग्रहण किए बिना नहीं रह सकता। प्रत्येक संसारी-जीव को क्षुधावेदनीय-कर्म का उदय होने से भूख लगती है, भोजन की इच्छा भी जाग्रत हो जाती है।
श्वेताम्बर–मान्यता के अनुसार, सर्वशक्तिमान् केवली तीर्थंकर परमात्मा भी भोजन ग्रहण करते हैं। इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर–परम्परा की मान्यताओं में दो प्रमुख भेद हैं - प्रमाणनयतत्त्वालोक18 में प्रत्यक्ष प्रमाण के दूसरे परिच्छेद में
16 संयम-सुखदाता : प्रवचनमाला, आ. देवेन्द्र मुनि, पृ. 86 17 एकंद्वौ त्रीन्वाऽनाहारक, - तत्त्वार्थसूत्र, 2/30 18 प्रमाणनयतत्त्वालोक - 2/27
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